ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
वी॒तिहो॑त्रा कृ॒तद्व॑सू दश॒स्यन्ता॒मृता॑य॒ कम् । समूधो॑ रोम॒शं ह॑तो दे॒वेषु॑ कृणुतो॒ दुव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवी॒तिऽहो॑त्रा । कृ॒तद्व॑सू॒ इति॑ कृ॒तत्ऽव॑सू । द॒श॒स्यन्ता॑ । अ॒मृता॑य । कम् । सम् । ऊधः॑ । रो॒म॒शम् । ह॒तः॒ । दे॒वेषु॑ । कृ॒णु॒तः॒ । दुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीतिहोत्रा कृतद्वसू दशस्यन्तामृताय कम् । समूधो रोमशं हतो देवेषु कृणुतो दुव: ॥
स्वर रहित पद पाठवीतिऽहोत्रा । कृतद्वसू इति कृतत्ऽवसू । दशस्यन्ता । अमृताय । कम् । सम् । ऊधः । रोमशम् । हतः । देवेषु । कृणुतः । दुवः ॥ ८.३१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Performing yajna with generous hospitality, creating wealth and giving in charity, contributing to the peace and comfort of all in general for the sake of divine gifts of immortality, blest with milch cows and woolly sheep and goats, they live the good life doing reverence to the divines and enjoying the liberal gifts of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे स्त्री-पुरुष सत्पात्री लोकांना धन देतात, माता-पिता व गुरुजनांची सेवा करतात ते सुखी होतात. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
पुनस्तौ दम्पती कीदृशौ । वीतिहोत्रा=वीतिहोत्रौ । वीतिः प्रियकरी होत्रा यज्ञो ययोस्तौ यज्ञप्रियावित्यर्थः । यद्वा । वीतिः कान्त्यर्थः । होत्रेति वाङ्नाम । वीतिरभिलषिता होत्रा वाणी ययोस्तौ । सर्वे जना ययोर्वाचं श्रोतुमभिलषन्त इत्यर्थः । पुनः । कृतद्वसू=कृतवसू=दकारोपजनश्छान्दसः । पात्रेषु कृतानि निक्षिप्तानि वसूनि धनानि ययोस्तौ दातारौ । पुनः । कं सुखम् । अमृताय मोक्षधर्मप्राप्तये । दशस्यन्ता सर्वेभ्यो ददतौ । पुनः ऊधः गवादिस्तनम् । तेन गवादिकं लक्ष्यते रोमशपदेन रोममय मेषादि लक्ष्यम् । ऊधो गवादिकम् । रोमशं रोमयुक्तं मेषादिकं प्राणिजातम् । संहतः संगच्छतः । संप्राप्नुतः इत्यर्थः । पुनः । देवेषु दुवः परिचर्य्यां सेवाम् । कुणुतः कुरुतः ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
वे दम्पती पुनः कैसे हैं−(वीतिहोत्रा) यज्ञप्रिय । यद्वा जिसकी वाणी सब ही सुनना चाहते हैं । पुनः (कृतद्वसू) सत्पात्रों में धन वितीर्ण करनेवाले । पुनः (अमृताय) अविनश्वर ईश्वर के उद्देश्य से अथवा मुक्ति की प्राप्ति के उद्देश्य से (कम्) सुख को (दशस्यन्तौ) सबमें देनेवाले । पुनः (ऊधः) गवादि और (रोमशम्) रोमयुक्त मेषादि पशुओं को (सम्+हतः) वे दोनों प्राप्त करते हैं तथा (देवेषु) माता, पिता, आचार्य, गुरु, पुरोहित तथा परमदेव ईश्वर के निमित्त (दुवः) सेवा (कृणुतः) करते हैं । पाँच ऋचाओं से दम्पती का वर्णन किया गया है ॥९ ॥
विषय
पति-पत्नी के कर्त्तव्य।
भावार्थ
वे दोनों ( वीति-होत्रा ) विशेष ज्ञानयुक्त वाणी को बोलने हारे और ( कृतद्वसू = कृत-वसू ) उत्तम धन, गृह, बल, वीर्यादि प्राप्त करके ( दशस्यन्ताम् ) दान दिया करें। वे ( अमृताय कम् ) अमृत अर्थात् न मरने वाली जीवित सन्तान को प्राप्त करने के लिये ( ऊधः रोमशं ) उत्तम सन्तान आधान और धारण करने वाले, रोम युक्त अर्थात् यौवनयुक्त अंगों को ( सं-हतः ) सयोजित करें, उत्तम सन्तान उत्पन्न करें और ( देवेषु ) विद्वानों की ( दुवः ) सेवा ( कृणुतः ) किया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
सन्तान निर्माण के लिये परस्पर मेल
पदार्थ
[१] (वीतिहोत्रा) = [वीति: प्रियकरः होत्र यज्ञः ययोः] जिनको यज्ञ बड़ा प्रिय है । (कृतद्वसू) = [ याचमान कृतधनौ - पात्रेषूपयुक्तधनौ] पात्रों में धनों को उपयुक्त करनेवाले, अर्थात् जो दानशील हैं। (अमृताय) = अमरण के लिये, नीरोगता के लिये (कम्) = सुखप्रद हविरूप अन्न को (दशस्यन्ता) = देवों के लिये देते हैं। [२] ये पति-पत्नी (अमृताय) = प्रजा के द्वारा अमर बने रहने के लिये (ऊधः) = योनि को तथा (रोमशम्) = रोमयुक्त [ यौवन युक्त] अंग को (संहतः) = संयुक्त करते हैं। केवल सन्तान निर्माण के लिये ही इस मैथुन का प्रयोग करते हैं। और उत्तम सन्तानोंवाले ये पति-पत्नी देवेषु देवों में (दुवः) = परिचर्या-उपासना को (कृणुतः) = करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- आदर्श पति-पत्नी [क] यज्ञशील होते हैं, [ख] दान की वृत्तिवाले बनते हैं,[ग] नीरोगता के लिये हविरूप अन्नों को देनेवाले होते हैं। [घ] सन्तान निर्माण के लिये ही शक्ति का विनियोग करते हैं। [ङ] देवों का उपासन करते हैं।
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