ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 18
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - दम्पत्योराशिषः
छन्दः - आर्चीभुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अस॒दत्र॑ सु॒वीर्य॑मु॒त त्यदा॒श्वश्व्य॑म् । दे॒वानां॒ य इन्मनो॒ यज॑मान॒ इय॑क्षत्य॒भीदय॑ज्वनो भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑त् । अत्र॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । उ॒त । त्यत् । आ॒शु॒ऽअश्व्य॑म् । दे॒वाना॑म् । यः । इत् । मनः॑ । यज॑मानः । इय॑क्षति । अ॒भि । इत् । अय॑ज्वनः । भु॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असदत्र सुवीर्यमुत त्यदाश्वश्व्यम् । देवानां य इन्मनो यजमान इयक्षत्यभीदयज्वनो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठअसत् । अत्र । सुऽवीर्यम् । उत । त्यत् । आशुऽअश्व्यम् । देवानाम् । यः । इत् । मनः । यजमानः । इयक्षति । अभि । इत् । अयज्वनः । भुवत् ॥ ८.३१.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 8
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May there be heroic power and prowess, fast victory and life’s fulfilment for him who performs yajna in service to the divinities of nature and humanity with truth of mind and action, and may he surpass all those uncharitables who perform no selfless service in creative action to divinity and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या उपासकाचे शारीरिक बल व मनोबल सदैव वाढत राहते. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अत्र अस्मिन् परमात्मोपासके जने । सुवीर्यम् । असत् भवति । शारीरं मानसिकञ्च बलं तस्मिन् सदा वर्धते । उत अपि च । आश्वश्व्यम् आशुगामि अश्वादिप्राणिजातम् । त्यत् तत्प्रसिद्धं धनम् । तस्मिन् जायते । यश्च यजमानः देवानां विदुषाञ्च । मन इत् मन एव स्वाचरणैः । इयक्षति पूजयति वशीकरोति । सः अयज्वनो नास्तिकान् । अभि । भुवत्+इत्=अभिभवत्येव ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अत्र) इस परमात्मोपासक जन में (सुवीर्यम्) शारीरिक और मानसिक बल (असत्) सदा बढ़ता ही रहता है (उत) और (आश्वश्व्यम्) शीघ्रगामी घोड़े आदि पशुसमूह (त्यत्) प्रसिद्ध धन उस उपासक के निकट बहुत होता है । पूर्ववत् । (यजमानः) जो यजमान (देवानाम्) विद्वानों के (मनः+इत्) मन को ही (इयक्षति) अपने आचरणों से वश में करता है (अयज्वनः) वह अयजनशील नास्तिकों का (अभि+भुवत्+इत्) अवश्य ही अभिभव करता है ॥१८ ॥
विषय
यज्ञशील का वैभव, बल और सामर्थ्य।
भावार्थ
( यत् इत् देवानां मनः ) जो देव, उत्तम तेजस्वी विद्वान् पुरुषों के ज्ञान का ( इयक्षति ) आदर, सत्संग करता है, वह ( अयज्वनः ) सत्संग न करने वाले कदाचारी पुरुषों को ( अभि भुवत् इत् ) अवश्य परास्त करता है, क्योंकि उसका ( अत्र ) इस लोक में ( सुवीर्यम् असत् ) उत्तम वीर्य बल और विद्या सामर्थ्य हो जाता है और उसको (त्यत्) वह अलौकिक (आशु अश्व्यम्) शीघ्रगामी अश्वों से युक्त सैन्यादि और बलवान् इन्द्रिय-बल, सामर्थ्य प्राप्त होता है। इतिः चन्वारिंशो वर्गः॥ इति षष्ठेऽष्टके द्वितीयोध्यायः समाप्तः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
सुवीर्यं, आशु अश्व्यम्
पदार्थ
[१] (यः यजमानः) = जो यज्ञशील पुरुष (देवानां मनः) = देवों के मन को, दिव्य गुण सम्पन्न मन को (इत्) = निश्चय से (इयक्षति) = अपने साथ जोड़ने की कामना करता है, वह (इत्) = निश्चय ही (अयज्वनः) = अयज्ञशीलों को (अभिभवत्) = अभिभूत कर लेता है। [२] (अत्र) = इस यजमान के जीवन में (सुवीर्यं असत्) = उत्कृष्ट वीर्य होता है, (उत) = और (त्यत्) = वह प्रसिद्ध आशु शीघ्रगामी (अश्व्यम्) = इन्द्रियाश्वों का समूह होता है, यज्ञशील पुरुष उत्कृष्ट वीर्य को व स्फूर्तिमय इन्द्रिय समूह को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर मन को दिव्य गुण सम्पन्न बनायें। इससे हमें सुवीर्य व उत्तम इन्द्रिय समूह की प्राप्ति होगी। इन उत्तम इन्द्रियों के द्वारा हम ज्ञान-वर्धन करते हुए तथा सुवीर्य द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हुए 'मेधातिथि' बनते हैं, निरन्तर बुद्धि की ओर चलनेवाले। ऐसा होने पर हम 'काण्व' कण्व पुत्र अतिशयेन मेधावी होते हैं। मेधातिथि इन्द्र का उपासन करता हुआ कहता है-
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