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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - दम्पत्योराशिषः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒रम॑तिरन॒र्वणो॒ विश्वो॑ दे॒वस्य॒ मन॑सा । आ॒दि॒त्याना॑मने॒ह इत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒रम॑तिः । अ॒न॒र्वणः॑ । विश्वः॑ । दे॒वस्य॑ । मन॑सा । आ॒दि॒त्याना॑म् । अ॒ने॒हः । इत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरमतिरनर्वणो विश्वो देवस्य मनसा । आदित्यानामनेह इत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरमतिः । अनर्वणः । विश्वः । देवस्य । मनसा । आदित्यानाम् । अनेहः । इत् ॥ ८.३१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The world’s obedience and service to irresistible divinity rendered sincerely with mind and soul and the grace of the Adityas gives freedom from sin and selfishness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    खरा परमेश्वर भक्त पापी नसतो. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अनवर्णः अर्वा गम्यो गमनीयः न अर्वा अनर्वा तस्य । अगम्यस्य । देवस्य परमदेवस्य ईशस्य । विश्वः सर्वः खलु भक्तः । मनसा श्रद्धया । अरमतिः अलमतिः पर्य्याप्तबुद्धिः । जायत इति शेषः । आदित्यानाम् आदित्यानामिव अत्र लुप्तोपमा । द्वादशमासिकसूर्य्याणामिव । भक्तानां कर्म । अनेह इत् अपापकमेव भवति ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अनवर्णः) अविनश्वर अगम्य अगाध (देवस्य) परमदेव का (विश्वः) सकल भक्तजन (मनसा) मानसिक श्रद्धा से (अरमतिः) पूर्ण बुद्धिवाला होता है और (आदित्यानाम्) प्रत्येक मास के १२ (द्वादश) सूर्य के समान भक्तजनों का कर्म (अनेहः+इत्) निष्पाप होता है ॥१२ ॥

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    विषय

    विद्वानों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    ( अनर्वणः ) अहिंसक ( देवस्थ ) सर्वदाता, सर्वप्रकाशक प्रभु के ( मनसा ) मनन और ज्ञान से ( विश्वः ) समस्त मनुष्य ( अरमति: ) बड़ा ज्ञानवान्, बुद्धिमान् हो जाते हैं और ( आदित्यानाम् ) आदित्य ब्रह्मचारी, तेजस्वी पुरुषों के ( मनसा ) ज्ञानोपदेश से सब कोई ( अनेहः इत् ) पाप रहित भी हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन से प्रशस्त बुद्धि व निष्पापता

    पदार्थ

    [१] (अनर्वणः) = उस हिंसा न करनेवाले व हिंसित न होनेवाले (देवस्य) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु के (मनसा) = मनन से (विश्वः) = सब कोई (अरमतिः) = अलंकृत बुद्धिवाला होता है। प्रभु का मनन व स्तवन हमें सद्बुद्धि प्राप्त कराता है । [२] (आदित्यानाम्) = अदीना देवमाता के पुत्रों का, अर्थात् दिव्यता के धारण करनेवाले व्यक्तियों की (अनेहः) = निष्पापता (इत्) = निश्चय से इस प्रभु मनन के द्वारा ही होती है। हम भी प्रभु का मनन [ध्यान] करते हुए अलंकृत बुद्धिवाले व निष्पाप बन पायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन प्रशस्त बुद्धि व निष्पापता का साधन है।

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