ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - ईज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पु॒रो॒ळाशं॒ यो अ॑स्मै॒ सोमं॒ रर॑त आ॒शिर॑म् । पादित्तं श॒क्रो अंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रो॒ळाश॑म् । यः । अ॒स्मै॒ । सोम॑म् । रर॑ते । आ॒ऽशिर॑म् । पात् । इत् । तम् । श॒क्रः । अंह॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरोळाशं यो अस्मै सोमं ररत आशिरम् । पादित्तं शक्रो अंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठपुरोळाशम् । यः । अस्मै । सोमम् । ररते । आऽशिरम् । पात् । इत् । तम् । शक्रः । अंहसः ॥ ८.३१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever offers food to the fire and to the deserving poor in honour of this omnipresent lord, Indra, and offers him oblations of soma mixed with fragrant havis, the lord almighty saves him from sin and evil.
मराठी (1)
भावार्थ
जगात दारिद्र्य व अज्ञान अधिक आहे, त्यामुळे ज्ञानी पुरुषांनी व धनवान लोकांनी विविध प्रकारचे अन्न व द्रव्य सदैव इच्छुक जनांना द्यावे. ईश्वर दान देणाऱ्या लोकांना दु:खापासून वाचवितो. कारण तो सर्वशक्तिमान आहे. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
ईश्वरमेव लक्षीकृत्य शुभानि कर्माणि विद्यातव्यानीति अनया शिक्षते । यथा यः खलु उपासकः अस्मै सर्वत्र विद्यमानाय महेश्वराय । समर्प्य पुरोडाशं पुरोऽन्नं दरिद्रेभ्यो दातव्यमन्नम् । श्रद्धया पुरोऽग्रे यद्दाश्यते दीयते । तं पुरोडाशम् । ररते ददाति । यः सोमं पवित्रतमं वस्तु । ररते । यः आशिरं विविधद्रव्याणि मिश्रयित्वा परिपक्वमन्नम् । ररते । तम् उपासकम् । अंहसः पापात् । शक्रः सर्वशक्तिमान् ईशः । पात्+इत् । पात्येव ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
ईश्वर को ही लक्ष्य करके निखिल शुभकर्म कर्तव्य हैं, यह इससे शिक्षा दी जाती है । यथा−(यः) जो उपासक (अस्मै) सर्वत्र विद्यमान इस परमात्मा को प्रथम समर्पित कर (पुरोडाशम्) दरिद्रों के आगे अन्न (ररते) देता रहता है और (सोमम्) परम पवित्र अन्न को और (आशिरम्) विविध द्रव्यों से मिश्रित अन्न को जो देता रहता है, (तम्) उसको (अंहसः) पाप से (शक्रः) सर्वशक्तिमान् ईश्वर (पात्+इत्) पालता ही है ॥२ ॥
भावार्थ
संसार में दरिद्रता और अज्ञान अधिक हैं, इस कारण ज्ञानी पुरुष ज्ञान और धनी जन विविध प्रकार के अन्न और द्रव्य इच्छुक जनों को सदा दिया करें । ईश्वर दाताओं को सर्व दुःखों से बचाया करता है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है ॥२ ॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यः) जो परमेश्वर (अस्मै) इस समस्त संसार को ( आशिरं ) खाने योग्य ( पुरोडाशं ) पूर्व ही देने योग्य, अन्न ( सोमं ) ओषधि लतादि रूप में ( रश्ते ) प्रदान करता है वही ( शक्रः ) शक्तिशाली परमेश्वर ( तं ) उस संसार को ( अंहसः ) पाप, और नाश होने से भी ( पात् ) बचाता है । ( २ ) ( यः ) जो प्रजाजन इस शक्तिमान् राजा को ( सोमं ) ऐश्वर्य ( पुरोडाशं ) अन्नवत् भोगने के लिये प्रदान करता है शक्तिशाली राजा उस प्रजाजन को पाप वा पापी जन से नाश होने से बचावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
पुरोडाश-सोम [यज्ञशेष का सेवन - सोमरक्षण]
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (अस्यै) = इस जीव के लिये (पुरोडाशम्) = हुतशेष को (ररते) = देते हैं। प्रभु जीव को यही आदेश करते हैं कि वह यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बने। 'केवलाधो भवति केवलादी' अकेले स्वयं ही सब खा जानेवाला तो पापी होता है। और वे प्रभु (आशिरम्) = समन्तात् शरीर में रोगकृमियों के शीर्ण करनेवाले (सोमम्) = सोम शक्ति को, वीर्य को (ररते) = देते हैं। इस सोम के रक्षण से ही तो हमारे जीवन का सारा उत्थान होना है। [२] (शक्रः) = ये सर्वशक्तिमान् प्रभु ही (तम्) = उस यज्ञशेष का सेवन करनेवाले तथा सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष को (अंहसः) = पाप से (पात् इत्) = अवश्य बचाते ही हैं। वस्तुत: 'यज्ञशेष का सेवन व सोमरक्षण' मनुष्य को पाप की ओर झुकने ही नहीं देते।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के आदेश के अनुसार 'यज्ञशेष का सेवन करते हुए तथा सोम का रक्षण करते हुए' हम अपने को पापों से पृथक् रखने में समर्थ हों।
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