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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    पा॒हि विश्व॑स्माद्र॒क्षसो॒ अरा॑व्ण॒: प्र स्म॒ वाजे॑षु नोऽव । त्वामिद्धि नेदि॑ष्ठं दे॒वता॑तय आ॒पिं नक्षा॑महे वृ॒धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒हि । विश्व॑स्मात् । र॒क्षसः॑ । अरा॑व्णः । प्र । स्म॒ । वाजे॑षु । नः॒ । अ॒व॒ । त्वाम् । इत् । हि । नेदि॑ष्ठम् । दे॒वऽता॑तये । आ॒पिम् । नक्षा॑महे । वृ॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाहि विश्वस्माद्रक्षसो अराव्ण: प्र स्म वाजेषु नोऽव । त्वामिद्धि नेदिष्ठं देवतातय आपिं नक्षामहे वृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाहि । विश्वस्मात् । रक्षसः । अराव्णः । प्र । स्म । वाजेषु । नः । अव । त्वाम् । इत् । हि । नेदिष्ठम् । देवऽतातये । आपिम् । नक्षामहे । वृधे ॥ ८.६०.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Save us from all evils of the world, from all selfish grabbers. Protect us in our struggles and lead us to victory. We approach you and pray to you, closest to us, our own, for the success of our divine yajna and rising advancement in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जेव्हा तुम्ही ईश्वराला शरण जाल तेव्हाच तुमची सगळी विघ्ने दूर होतील. ईश्वरालाच आपल्या जवळचा नातेवाईक व बंधू समजा व त्याच्या आश्रयाखाली सदैव राहा. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे ईश ! विश्वस्मात्=सर्वस्मात् । रक्षसः=महादुष्टात् । अराव्णः=अदातुश्च । नोऽस्मान् पाहि । तथा वाजेषु=सांसारिकसंग्रामेषु च । नोऽस्मान् । प्राव=प्रकर्षेण रक्ष । स्मेति पूरणः । हे देव । नेदिष्ठं=सर्वेषां सन्निधौ आसन्नतमम् । आपिं बन्धुम् । त्वाम्+इत्+हि=त्वामेव हि । देवतातये वृधे च । नक्षामहे=प्राप्नुमः ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे ईश ! (विश्वस्मात्+रक्षसः) समस्त दुष्ट पुरुषों से (नः+पाहि) हमको बचा (अराव्णः) अदाता से हमको बचा तथा (वाजेषु) संसारसम्बन्धी संग्रामों में तू (प्र+अव) हमारी रक्षा कर । हे ईश ! (देवतातये) सम्पूर्ण शुभकर्म के लिये और (वृधे) सांसारिक अभ्युदय के लिये भी (त्वाम्+इत्+हि) तुझको ही (नक्षामहे) आश्रय बनाते हैं, क्योंकि तू (नेदिष्ठम्) अति समीप है, तू (आपिम्) यथार्थ बन्धु है ॥१० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जब तुम ईश्वर की शरण में प्राप्त होगे, तब ही तुम्हारे सकल विघ्न दूर होंगे । ईश्वर को ही अपना समीपी सम्बन्धी और बन्धु समझो, उसके आश्रय में सदा वास करो ॥१० ॥

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    विषय

    रक्षोघ्न राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे राजन् ! प्रभो ! तू ( नः ) हमें ( विश्वस्माद् रक्षसः अराव्णः ) सब प्रकार के दुष्ट और शत्रु से ( पाहि ) बचा। और ( नः ) हमें ( वाजेषु ) संग्रामों में भी ( प्र अव स्म) अच्छी प्रकार रक्षा कर। ( देवतातये ) विद्वान् वीर आदि जनों के हितार्थ ( त्वाम् इत् हि नेदिष्ठं ) तुझ को ही अति निकट का ( आपिं ) बन्धु जान कर ( वृधे ) अपनी वृद्धि के लिये ( नक्षामहे ) प्राप्त होते हैं। इति त्रयस्त्रिंशी वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    नेदिष्ठ आपि

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (विश्वस्मात्) = सब (आराव्णः) = अदानशीलता आदि (रक्षसः) = राक्षसी वृत्तियों से (पाहि) = बचाइए। आप (वाजेषु) = संग्रामों में (नः) = हमें (प्र अव स्म) = निश्चय से रक्षित करिये। [२] (त्वाम्) = आपको (इत् हि) = निश्चय से (देवतातये) = दिव्यगुणों के विस्तार के लिए और (वृधे) = वृद्धि के लिए (नेदिष्ठं आपिं) = अन्तिकतम मित्र को (नक्षामहे) = प्राप्त होते हैं। आपको प्राप्त करके ही हम अदानशीलता आदि अशुभ बातों से दूर होकर शुभ गुणों को प्राप्त करेंगे। आपकी उपासना ही हमें संग्राम में विजयी बनाती है। यह आपकी मित्रता ही हमारी वृद्धि का कारण बनती है। भावार्थ- हम प्रभु को अपना अन्तिकतम मित्र समझें। प्रभु हमें संग्राम में विजयी व दिव्यगुणसम्पन्न बनाएँगे। इस मित्रता से ही हमारी सब प्रकार से वृद्धि होगी।

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