Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अच्छा॒ हि त्वा॑ सहसः सूनो अङ्गिर॒: स्रुच॒श्चर॑न्त्यध्व॒रे । ऊ॒र्जो नपा॑तं घृ॒तके॑शमीमहे॒ऽग्निं य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । हि । त्वा॒ । स॒ह॒सः॒ । सू॒नो॒ इति॑ । अ॒ङ्गि॒रः॒ । स्रुचः॑ । चर॑न्ति । अ॒ध्व॒रे । ऊ॒र्जः । नपा॑तम् । घृ॒तऽके॑शम् । ई॒म॒हे॒ । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञेषु॑ । पू॒र्व्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अङ्गिर: स्रुचश्चरन्त्यध्वरे । ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । हि । त्वा । सहसः । सूनो इति । अङ्गिरः । स्रुचः । चरन्ति । अध्वरे । ऊर्जः । नपातम् । घृतऽकेशम् । ईमहे । अग्निम् । यज्ञेषु । पूर्व्यम् ॥ ८.६०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, creator of energy and power, dear as breath of life omnipresent, the ladles of ghrta feed you well in the holy fire of yajna. We honour and adore the divine fire, prime power, infallible product of cosmic energy and rising in flames in yajnas.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे संपूर्ण सूक्त यज्ञीय अग्नीलाही लागू पडते. त्यासाठी पुष्कळ विशेषणे अशी आहेत की, दोन्ही वाचक असतात. दोन्ही अर्थ देण्यास समर्थ असतात. जसे (सहस: सूनु:) अग्नी शब्दाचा अर्थ बलाचा पुत्र असा आहे, कारण बलपूर्वक रगडण्याने अग्नी उत्पन्न होतो. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    यज्ञेऽग्निनाम्ना परमात्मैव पूज्यत इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे सहसः सूनो=जगदुत्पादक ! “सहसा बलेन जायत इति सहो जगत् । सूते जनयतीति सूनुः षूङ् प्राणिगर्भविमोचने, यद्वा षू प्रेरणे । सुवते प्रेरयति जगदिदमिति सूनुः” । हे अङ्गिरः=अङ्गिन् सर्वत्र संगतदेव ! अध्वरे=यज्ञे । त्वा हि=त्वामेव । अच्छ=अभिप्राप्तुम् । स्रुचश्चरन्ति । ईदृशं त्वामेव वयमीमहे=प्रार्थयामहे । कीदृशम् ऊर्जो नपातम् । बलस्य न पातयितारं बलस्य प्रदातारमित्यर्थः । पुनः घृतकेशम्=घृतकानां जलादीनामीशम् । पुनः । अग्निं=सर्वगतम् । पुनः । यज्ञेषु । पूर्व्यम्=सर्वपूरकम् ॥२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    यज्ञ में अग्नि नाम से परमात्मा ही पूज्य होता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (सहसः+सूनो) हे जगदुत्पादक (अङ्गिरः) हे अङ्गिन् हे सर्वगत देव ! (अध्वरे) यज्ञ में (त्वा+हि) तुझको ही (अच्छ) प्राप्त करने के लिये (स्रुचः) अग्निहोत्री के स्रुवा आदि साधन (चरन्ति) कार्य्य में प्रयुक्त होते हैं, वैसे (अग्निम्) अग्नि नाम से प्रसिद्ध तुझको ही हम उपासक (ईमहे) प्रार्थना करते हैं, जो तू (ऊर्जः+नपातम्) बलप्रदाता है, (घृतकेशम्) जलादिकों का ईश है । पुनः (यज्ञेषु+पूर्व्यम्) यज्ञों में सब पदार्थों को पूर्ण करनेवाला तू ही है ॥२ ॥

    भावार्थ

    यह सम्पूर्ण सूक्त यज्ञिय अग्नि में भी घट सकता है, अतः बहुत से विशेषण ऐसे रक्खे गए हैं कि वे दोनों के वाचक हों, दोनों अर्थों को देने में समर्थ हों, जैसे (सहसः+सूनुः) इसका अग्नि पक्ष में बल का पुत्र अर्थ है, क्योंकि बलपूर्वक रगड़ से अग्नि उत्पन्न होता है । इत्यादि ॥२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्निवत् परमेश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( सहसः सूनो ) बल, सैन्यादि के प्रेरक ! हे ( अङ्गिरः ) अंग में रसवत् राष्ट्र में बलवन् ! ( त्वा हि अच्छ ) तुझे लक्ष्य करके ही ( अध्वरे स्रुचः ) यज्ञ में स्रुचों के समान ही समस्त प्रजागण, ( चरन्ति ) के चलते हैं। हम ( ऊर्जः नपातं ) बल, उत्तम अन्न और वृष्टि को सूर्यादि के तुल्य नष्ट न होने देने वाले वा शक्ति के पुत्रवत् उससे प्रजाओं को बांधने और उनको स्वयं प्रबद्ध करने वाले ( घृत केशम् ) स्निग्ध केश वाले, सुकेश, एवं प्रदीप्त तेज को केशोंवत् धारण करने वाले ( यज्ञेषु पूर्व्यम् ) यज्ञों, सत्संगों में एवं यज्ञादि कार्यों के निमित्त, सबसे पूर्व, श्रेष्ठ, ( अग्निम् ईमहे ) अग्रणी, तेजस्वी ज्ञानादि के प्रकाशक पुरुष को ही हम प्राप्त हों और उससे ही ( ऊर्ज: ईमहे ) बलों, अन्नों आदि की याचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऊर्जा नपातं घृतकेशम् [ईमहे]

    पदार्थ

    [१] हे (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज प्रभो! हे (अंगिरः) = सर्वत्र गतिवाले प्रभो! इस (अध्वरे) = जीवनयज्ञ में (स्रुचः) = [वाग् वै स्रुक् श० ६, ३.१.८] ज्ञान की वाणियाँ (हि) = निश्चय (त्वा अच्छा) = आपकी ओर (चरन्ति) = गतिवाली होती हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ हमें आपके समीप प्राप्त कराती हैं। [२] हम (यज्ञेषु) = यज्ञों में उस प्रभु को (ईमहे) = आराधित करते हैं-स्तुत करते हैं। जो (ऊर्जः न पातं) = शक्ति को न गिरने देनेवाले हैं। (घृतकेशं) = दीप्त ज्ञान की रश्मियोंवाले हैं। (अग्निं) = अग्रणी है और (पूर्व्यम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- इस जीवनयज्ञ में हम ज्ञान को प्राप्त करते हुए प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएँगे और ज्ञानदीप्ति को देंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top