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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒प्त होता॑र॒स्तमिदी॑ळते॒ त्वाग्ने॑ सु॒त्यज॒मह्र॑यम् । भि॒नत्स्यद्रिं॒ तप॑सा॒ वि शो॒चिषा॒ प्राग्ने॑ तिष्ठ॒ जनाँ॒ अति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । होता॑रः । तम् । इत् । ई॒ळ॒ते॒ । त्वा॒ । अग्ने॑ । सु॒ऽत्यज॑म् । अह्र॑यम् । भि॒नत्सि । अद्रि॑म् । तप॑सा । वि । शो॒चिषा॑ । प्र । अ॒ग्ने॒ । ति॒ष्ठ॒ । जना॑न् । अति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त होतारस्तमिदीळते त्वाग्ने सुत्यजमह्रयम् । भिनत्स्यद्रिं तपसा वि शोचिषा प्राग्ने तिष्ठ जनाँ अति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । होतारः । तम् । इत् । ईळते । त्वा । अग्ने । सुऽत्यजम् । अह्रयम् । भिनत्सि । अद्रिम् । तपसा । वि । शोचिषा । प्र । अग्ने । तिष्ठ । जनान् । अति ॥ ८.६०.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, seven yajakas adore and serve you, all giver, imperishable and eternal. You cleave the mountains and expand and evaporate the clouds with your heat and flames of fire. Pray, Agni, stay among the people at the closest and rise high.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञात परमात्म्याची स्तुती केली पाहिजे. दोन डोळे, दोन कान, दोन नासिका व एक जिह्वा हे सात होता आहेत किंवा होता, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा, यजमान-पत्नी व पत्नीची साहाय्यकर्ती हा आशय आहे. ॥१६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने ! तमित्=तमेव । त्वा=त्वाम् । सप्तहोतारः । ईळते=स्तुवन्ति । कीदृशम् । सुत्यजम्=सुत्यागम्= सर्वत्यागशीलम् । पुनः । अह्रयम्=अक्षयम् । हे अग्ने ! त्वं तपसा । शोचिषा=तेजसा च । अद्रिम्=आदिसंसारम् । भिनत्सि । हे देव ! त्वं जनान् । अति=अतिसमीपे । प्र तिष्ठ ॥१६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत ईश ! (तम्+इत्+त्वा) उस व्यापी तेरी ही (सप्त+होतारः) सात होता (ईळते) स्तुति करते हैं । जो तू (सुत्यजम्) सर्व प्रकार के दान देनेवाला है और (अह्रयम्) अक्षय है । (अग्ने) हे सर्वाधार परमात्मन् ! तू (तपसा) ज्ञानमय तप से और (शोचिषा) तेज से (अद्रिम्) आदि सृष्टि को (भिनत्सि) बनाता है, वह तू (जनान्+अति) मनुष्यों के अति समीप में (प्र+तिष्ठ) स्थित हो ॥१६ ॥

    भावार्थ

    यज्ञ में परमात्मा की ही स्तुति प्रार्थना करनी चाहिये । सप्त होता, दो नयन, दो कर्ण, दो नासिकाएँ और एक जिह्वा ये सात हैं । अथवा होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा और यजमान यजमान-पत्नी और पत्नी की सहायिका । यह इसका आशय है । इत्यादि ॥१६ ॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् सात प्रकृति वाले राजा का स्वरूप।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! ( सप्त होतारः ) सात अधिकाधिक बल आदि देने वाले प्रकृतिगण ( सु-त्यजम् ) उत्तमदाता (अह्रयम्) अक्षीण; ( तं त्वा ) उस तुझको ( ईडते इत् ) चाहते और तेरी प्रतिष्ठा करते हैं। वह तू ( शोचिषा ) अपने तेज से और ( तपसा ) प्रताप से ( अद्रिं ) प्रबल शत्रु सैन्य को ( भिनत्सि ) मेघ को सूर्य के समान भेदन करता है और हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् नायक ! तू ( जनान् अति प्र तिष्ठ) सब जनों से बढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर, सर्वोत्तमपद पर विराज।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सुत्यज अह्रय' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सप्त होतारः) = ' कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' दो कर्ण, दो नासिका, दो आँख व मुख रूप सप्त होता (तम् त्वा इत्) = उन आपको ही (ईडते) = स्तुत करते हैं। जो आप (सुत्यजम्) = उत्तम त्याग व दानवाले हैं तथा (अह्रयम्) = न क्षीण होनेवाले हैं। [२] आप (तपसा) = तप के द्वारा तथा (शेचिषा) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अद्रि) = अविद्यापर्वत को (विभिनत्सि) = विदीर्ण करते हैं। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (जनान्) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले हमें (अति) = अतिशयेन (प्रतिष्ठ) = [प्रगच्छ] प्राप्त होवें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम कान, आँख आदि द्वारा प्रभु की महिमा को ही सुनें व देखें। प्रभु तप व के द्वारा हमारी अविद्या को विनष्ट करते हैं। शक्तियों का विकास करनेवालों को ही प्रभु प्राप्त

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