ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 9
पा॒हि नो॑ अग्न॒ एक॑या पा॒ह्यु१॒॑त द्वि॒तीय॑या । पा॒हि गी॒र्भिस्ति॒सृभि॑रूर्जां पते पा॒हि च॑त॒सृभि॑र्वसो ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । एक॑या । पा॒हि । उ॒त । द्वि॒तीय॑या । पा॒हि । गीः॒ऽभिः । ति॒सृऽभिः॑ । ऊ॒र्जा॒म् । प॒ते॒ । पा॒हि । च॒त॒सृऽभिः॑ । व॒सो॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पाहि नो अग्न एकया पाह्यु१त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥
स्वर रहित पद पाठपाहि । नः । अग्ने । एकया । पाहि । उत । द्वितीयया । पाहि । गीःऽभिः । तिसृऽभिः । ऊर्जाम् । पते । पाहि । चतसृऽभिः । वसो इति ॥ ८.६०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, save us by the first voice, and by the second, by three voices, and, O lord of cosmic power, ultimate haven and home of existence, save us by the four.$(This is a very simple and yet a most comprehensive verse. The first voice could be the voice of average humanity; second, words of the sages; third, voice of the soul; fourth, the voice of divinity. Another way to understand: One, two, three or all the four Veda’s voice. Yet another: voice of the soul in the rising sequence of the four mantras of Aum as described in the Upanishads. And then the four stages of language in the descending order from divine to the human: Para, Pashyanti, Madhyama and Vaikhari)
मराठी (1)
भावार्थ
प्रथम माणसाने आपली वाणी मधुर व सत्य बनवावी. वेदशास्त्र अशा प्रकारे वाचावे व व्याख्यान करावे की, लोक मोहित व्हावेत व त्यांच्या हृदयातून अज्ञान नष्ट व्हावे. आत्म्यामध्ये जे जे विचार उत्पन्न होतात ते प्रयत्नपूर्वक लिहावेत. विचारांवर मनन चिंतन करून वाढवावेत. आत्म्यात जो ईश्वरीय आदेश असेल त्याचा एकांतात निश्चिंतपणे विचार करावा व जगाला ऐकवावा. जेव्हा अंत:करण शुद्ध असेल तेव्हाच हे घडू शकेल. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने सर्वगत ! नोऽस्मान् । एकया गिरा पाहि । उत द्वितीयया गिरा पाहि । उत तिसृभिर्गीर्भिः पाहि । हे ऊर्जां पते ! हे वसो ! चतसृभिर्गीर्भिः पाहि ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगत (ऊर्जाम्+पते) हे बलाधिदेव महाबलप्रद ईश ! (नः) हम जीवों को (एकया) मधुरमयी वाणी से (पाहि) रक्षा कर, (तिसृभिः+गीर्भिः) लौकिकी, वैदिकी और आध्यात्मिकी वाणियों से (पाहि) हमारी रक्षा कर, (वसो) हे वासदाता सर्वत्रवासी देव ! (चतसृभिः) तीन पूर्वोक्त एक दैवी इन चारों वाणियों से तू हमको पाल ॥९ ॥
भावार्थ
प्रथम मनुष्य अपनी वाणी मधुर और सत्य बनावें, तब वेद-शास्त्रों के वाक्यों को इस प्रकार पढ़ें और व्याख्यान करें कि लोग मोहित हों और उनके हृदय से अज्ञान निकल बाहर भाग जाय, तब आत्मा के अभ्यन्तर से जो-२ विचार उत्पन्न हों, उन्हें बहुत यत्न से लिखता जाय, उन पर सदा ध्यान देवे और उन्हें बढ़ाता जाय । तत्पश्चात् आत्मा के साथ जो ईश्वरीय आदेश हों, उन्हें एकान्त और निश्चिन्त हो विचारे और जगत् को सुनावे । यह तब ही हो सकता है, जब अन्तःकरण शुद्ध हो ॥९ ॥
विषय
ज्ञानी व गुरु का वर्णन।
भावार्थ
हे ( वसो ) अपने अधीन प्रजाओं वा शिष्यगणों को बसाने वाले प्रजापते ! हे ( ऊर्जाम्पते ) नाना अन्नों, बलों के पालक ! तू ( नः ) हमें ( एकया गिरा पाहि ) एक वेदवाणी से पालन कर। (उत द्वितीयया गिरा पाहि ) और दूसरी वेद वाणी से भी पालन कर। ( तिसृभिः गीर्भिः पाहि ) तीन वेद वाणियों से पालन कर। ( चतसृभिः गीर्भिः पाहि ) चारों वेद वाणियों से पालन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
चार वेद
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (नः) = हमें (एकया) = ऋचारूप प्रथम [मुख्य] वाणी के द्वारा (पाहि) = रक्षित करिये। (उत) = और (द्वितीयया) = यजूरूप दूसरी वाणी से भी (पाहि) -रक्षित करिये। [२] हे (ऊर्जाम्पते) = बलों व प्राणशक्तियों के स्वामिन्! (तिसृभिः गीर्भिः) = सामरूप तृतीय वाणियों के द्वारा भी (पाहि) = रक्षण करिये। हे वसो हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (चतसृभिः) = चारों वाणियों के द्वारा (पाहि) = हमारा रक्षण करिये। [३] ऋचाएँ विज्ञान का शिक्षण करती है। यजुर्मन्त्र यज्ञात्मक कर्मों का प्रतिपादन करते हैं। इस विज्ञान व इन यज्ञों से उन्नति होती है। सो यहाँ प्रभु को 'अग्ने' नाम से सम्बोधित किया है। तीसरी सामरूप वाणियों से प्रभुसम्पर्क द्वारा शक्ति का संचार होता है। सो सम्बोधन भी 'ऊर्जाम्पते' है। अथर्व हमें 'वाचस्पति' बनाकर उत्तम निवासवाला बनाता है। सो सम्बोधन भी 'वसो' है।
भावार्थ
भावार्थ- ऋग् व यजूरूप वाणियाँ हमारी अग्रगति का कारण बनती हैं। साममन्त्र हमारे में बल व प्राण का संचार करते हैं। चौथे अथर्वमन्त्र, हमें रोगों व युद्धों से ऊपर उठाकर उत्तम निवासवाला बनाते हैं।
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