ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 17
अ॒ग्निम॑ग्निं वो॒ अध्रि॑गुं हु॒वेम॑ वृ॒क्तब॑र्हिषः । अ॒ग्निं हि॒तप्र॑यसः शश्व॒तीष्वा होता॑रं चर्षणी॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्ऽअ॑ग्निम् । वः॒ । अध्रि॑ऽगुम् । हु॒वेम॑ । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । अ॒ग्निम् । हि॒तऽप्र॑यसः । श॒श्व॒तीषु॑ । आ । होता॑रम् । च॒र्ष॒णी॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमग्निं वो अध्रिगुं हुवेम वृक्तबर्हिषः । अग्निं हितप्रयसः शश्वतीष्वा होतारं चर्षणीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्ऽअग्निम् । वः । अध्रिऽगुम् । हुवेम । वृक्तऽबर्हिषः । अग्निम् । हितऽप्रयसः । शश्वतीषु । आ । होतारम् । चर्षणीनाम् ॥ ८.६०.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For your sake, O people of the world, we on the seats of holy grass invoke Agni, one form after another of the irresistible universal power of nature and divinity, and having collected our offerings ready, we light and serve the fire, high priest of cosmic yajna among all the communities of humanity over the lands.
मराठी (1)
भावार्थ
जे सदैव अग्निहोत्र इत्यादी कर्म करतात व सुखी होतात त्यांनी दुसऱ्याच्या भलाईसाठी ईश्वराला प्रार्थना करावी. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वयम् । वः=युष्माकम् । चर्षणीनां=मनुष्याणाम् । हिताय । अग्निमग्निमग्निम् । आहुवेम=आह्वयाम=स्तवाम । कीदृशानाम् । शश्वतीषु= बहुषु भूमिषु वर्तमानानाम् । कीदृशमग्निम् । अधृगुम्=अधृतगमनं सर्वत्र विराजमानम् । पुनः । होतारम्=सर्वप्रदातारम् । वयं कीदृशाः । वृक्तबर्हिषः= दर्भादिहोमसाधनसंपन्नाः । पुनः । हितप्रयसः=निहितधनाः प्राप्तसम्पत्तयः ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (वः+चर्षणीनाम्) तुम मनुष्यों के हित के लिये (अग्निम्) परमात्मा को ही (आहुवेम) हम आवाहन करें, उनकी ही स्तुति प्रार्थना करें । जो मनुष्य (शाश्वतीषु) बहुत भूमियों पर विद्यमान हैं । उन सबके लिये हम ईश्वर की स्तुति करें । जो ईश (अध्रिगुम्) सर्वत्र विद्यमान है और जो (होतारम्) सब कुछ देनेवाला है । हम मनुष्य कैसे हैं, (वृक्तबर्हिषः) दर्भादि होम साधनसम्पन्न पुनः (हितप्रयसः) बहुत अन्नों से युक्त हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
भाव यह है कि जो सदा अग्निहोत्रादि कर्म करते हों और सुखी हों, वे दूसरों की भलाई के लिये ईश्वर से प्रार्थना करें ॥१७ ॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृक्त-बर्हिषः ) कुशाओं के समान शत्रुगण को छिन्नभिन्न करने वाले वीर पुरुषो ! हम लोग ( वः ) आपलोगों में से ( अग्निम्-अग्निम् ) अग्निवत् तेजस्वी और (अध्रिगुम्-अधिगुम्) भूमि पर का शासक सर्वोपरि वाणी का वक्ता आज्ञापक (हुवेम) स्वीकार करें। हम ( हित-प्रयसः ) अन्नादि धारण करने वाले होकर ( शश्वतीषु ) बहुत सी प्रजाओं में ( चर्षणीनाम् ) विद्वान् मनुष्यों को वृत्ति देने वाले ( अग्निम् ) अग्रणी पुरुष को ही ( आ हुवेम ) आदरपूर्वक स्वीकार करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वृक्तबर्हिषः हितप्रयसः
पदार्थ
[१] (वः) = तुम सबके (अग्निं) = अग्रणी उस (अध्रिगुं) = अधृतगमनवाले (अग्नि) = प्रकाशस्वरूप प्रभु को (हुवेम) = हम पुकारते हैं। उस प्रभु की गति को कोई भी रोक नहीं सकता। (वृक्तबर्हिषः) = [वृजी वर्जने] जिसमें से वासनाओं का वर्जन किया गया है ऐसे वासनाशून्य हृदयवाले, (हितप्रयसः) [निहितहविष्का:] = अग्निकुण्ड में हवि का स्थापन करनेवाले यज्ञशील हम (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को पुकारते हैं। [२] उस प्रभु को हम पुकारते हैं जो (शश्वतीषु) = इस सनातन प्रजाओं में (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (आ होतारं) = समन्तात् सब आवश्यक पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं अथवा यज्ञों के साधक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम वासनाशून्य हृदयवाले व यज्ञशील बनकर उस प्रकाशमय प्रभु का आराधन करते हैं। वस्तुत: प्रभु ही हमारे यज्ञों को सिद्ध करते हैं और हमें आवश्यक पदार्थों को प्राप्त कराते हैं।
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