ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 12
येन॒ वंसा॑म॒ पृत॑नासु॒ शर्ध॑त॒स्तर॑न्तो अ॒र्य आ॒दिश॑: । स त्वं नो॑ वर्ध॒ प्रय॑सा शचीवसो॒ जिन्वा॒ धियो॑ वसु॒विद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । वंसा॑म । पृत॑नासु । शर्ध॑तः । तर॑न्तः । अ॒र्यः । आ॒ऽदिशः॑ । सः । त्वम् । नः॒ । व॒र्ध॒ । प्रऽय॑सा । श॒ची॒व॒सो॒ इति॑ शचीऽवसो । जिन्व॑ । धियः॑ । व॒सु॒ऽविदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन वंसाम पृतनासु शर्धतस्तरन्तो अर्य आदिश: । स त्वं नो वर्ध प्रयसा शचीवसो जिन्वा धियो वसुविद: ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । वंसाम । पृतनासु । शर्धतः । तरन्तः । अर्यः । आऽदिशः । सः । त्वम् । नः । वर्ध । प्रऽयसा । शचीवसो इति शचीऽवसो । जिन्व । धियः । वसुऽविदः ॥ ८.६०.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Give us the wealth of competence by which, rising in strength and power, moving forward, countering opposite intentions, designs and plans, we may defeat our enemies in the battles of life. O lord of knowledge, power and action, help us advance with food and sustenance, inspire and enlighten our vision and intelligence in action so that we may rise to be masters of wealth, honour and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
आमचे बाह्य व आंतरिक शत्रू असतात. त्यांना सदैव नियंत्रणात ठेवण्याचा उपाय करावा व ईश्वराला प्रार्थना करून आपली बुद्धी व कर्म शुद्ध व तेजस्वी बनवावे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
येन धनेन ज्ञानेन वा । पृतनासु=संग्रामेषु व्यावहारिकेषु । शर्धतः=बलं कुर्वतः । अर्यः=अरीन् । आदिशः=आदेशान् गुप्तविचारांश्च तरन्तो वयम् । वंसाम=हिंसाम । तद् देहि । तदर्थं च । हे शचीवसो=शच्या प्रज्ञया कर्मणां वा वासयितः ! स त्वम् । नोऽस्मान् । प्रयसा=अन्नेन । वर्ध=वर्धय । पुनः । वसुविदः=वसूनां लम्भिकाः । धियः=कर्माणि च । जिन्व=प्रीणय ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(येन) जिस धन से या ज्ञान से (पृतनासु) व्यावहारिक और पारमार्थिक संग्रामों में (शर्धतः) बल करते हुए (अर्य्यः) शत्रुओं को और (आदिशः) उनके गुप्त विचारों और मन्त्रों को (तरन्तः) दबाते हुए हम उपासकगण (वंसाम) नष्ट-भ्रष्ट कर देवें, वह धन दे और (सः+त्वम्) वह तू (नः) हमको (प्रयसा) अन्नों के साथ (वर्ध) बढ़ा । (शचीवसो) हे ज्ञान और कर्म के बल से बसानेवाले ईश्वर ! तू (धियः+जिन्व) हमारी बुद्धियों और कर्मों को (जिन्व) तेज बना, जो बुद्धियाँ कर्म (वसुविदः) धन सम्पत्तियों को उपार्जन करने में समर्थ हों ॥१२ ॥
भावार्थ
हमारे बाह्य और आन्तरिक शत्रु हैं । उनको सर्वदा दबा रखने के उपाय सोचें और अपनी बुद्धि और कर्मों को ईश्वर की प्रार्थना से शुद्ध और तेज बनावें ॥१२ ॥
विषय
पावन प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
( येन ) जिस धन से हम ( पृतनासु ) संग्रामों में ( आदिश: हरन्तः ) दिशा उपदिशाओं तक पार करते हुए ( शर्धंतः ) बलात्कार करने वाले, बलशाली शत्रुओं को भी (वंसाम) नाश करें। हे ( शचीवसो ) शक्ति के धनी ! ( सः त्वं ) वह तू ( नः ) हमें (प्रयसः वर्ध ) अन्न सम्पदा और प्रयाणकारी बल से बढ़ा। और ( वसुविदः धियः जिन्न ) ऐश्वर्य और प्रजाओं को प्राप्त कराने वाले कर्मों की वृद्धि कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सात्त्विक अन्न से सात्विक बुद्धि
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार हमें वह धन दीजिए (येन) = जिससे (पृतनासु) = संग्रामों में (शर्धतः) = हिंसा करनेवाले (अर्य:) = शत्रुओं को तथा (आदिशः) = शस्त्रों के फेंकनेवालों को (तरन्तः) = पार करते हुए (वंसाम) = विजयी बनें अथवा इन शत्रुओं को नष्ट कर सकें। [२] हे (शचीवसो) = प्रज्ञानधन प्रभो ! (सः) = वे (त्वं) = आप (नः) = हमें (प्रयसा) = सात्त्विक अन्न के द्वारा (वर्ध) = बढ़ाइए। (वसुविदः) = वसुओं को प्राप्त करानेवाली (धियः) = बुद्धियों को जिन्व हमारे अन्दर प्रेरित करिये। हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से शुद्ध बुद्धिवाले बनकर वसुओं को प्राप्त करनेवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- हमें वह धन प्राप्त हो जिससे कि हम शत्रुओं को पराजित कर पाएँ। प्रभु के अनुग्रह से हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए सात्त्विक बुद्धिवाले होकर वसुओं को प्राप्त करें।
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