ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 5
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
त्वमित्स॒प्रथा॑ अ॒स्यग्ने॑ त्रातॠ॒तस्क॒विः । त्वां विप्रा॑सः समिधान दीदिव॒ आ वि॑वासन्ति वे॒धस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इत् । स॒ऽप्रथाः॑ । अ॒सि॒ । अग्ने॑ । त्रा॒तः॒ । ऋ॒तः । क॒विः । त्वाम् । विप्रा॑सः । स॒म्ऽइ॒धा॒न॒ । दी॒दि॒ऽवः॒ । आ । वि॒वा॒स॒न्ति॒ । वे॒धसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातॠतस्कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदिव आ विवासन्ति वेधस: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इत् । सऽप्रथाः । असि । अग्ने । त्रातः । ऋतः । कविः । त्वाम् । विप्रासः । सम्ऽइधान । दीदिऽवः । आ । विवासन्ति । वेधसः ॥ ८.६०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you are infinitely expansive, boundless, all saviour, eternally right poet of cosmic rectitude, omniscient creator. Self-refulgent ever, light of the universe, the wise sages and masters of law and right action glorify you as the lord supreme.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराला सर्वजण स्वीकारतात, जो सत्यरूप व महाकवी आहे, ज्याच्यापेक्षा मोठा कोणी नाही त्याची तुम्हीही सेवा करा. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! हे त्रातः ! त्वमित्=त्वमेव । सप्रथाः=सर्वतः पृथुः । असि । त्वमृतः सत्योऽसि । त्वं कविः । हे समिधान=जगद्दीपक ! हे दीदिवः=हे जगद्भासक ! त्वामेव । विप्रासः मेधाविनः । वेधसः=कर्मविधातारश्च । आ विवासन्ति=सेवन्ते ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्ने (त्रातः) हे रक्षक ! (त्वम्+इत्) तू ही (सप्रथाः) सबसे बड़ा और विस्तीर्ण है, तू (ऋतः) सत्य है, (कविः) तू महाकवि है । (समिधान) हे जगद्दीपक (दीदिवः) हे जगद्भासक ! (त्वाम्) तुझको ही (विप्रासः) मेधाविगण तथा (वेधसः) कर्मविधातृगण आचार्य्यादिक महापुरुष (आ विवासन्ति) सेवते हैं ॥५ ॥
भावार्थ
जिस परमेश्वर को सब ही सेवते हैं, हे मनुष्यो ! तुम भी उसी की सेवा करो, जो सत्यरूप और महाकवि है, जिससे बड़ा कोई नहीं ॥५ ॥
विषय
अग्निवत् परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! प्रकाशस्वरूप प्रभो ! ( त्वम् इत् ) तू ही ( स-प्रथाः ) सब से बड़ा, ( असि ) है। हे ( त्रातः ) रक्षक ! तू ही ( ऋतः ) सत्यस्वरूप, न्यायशील और तू ही ( कविः ) भूत भविष्यादि को लांघ कर सर्वोपरि द्रष्टा है। हे ( सम्-इधान ) समान भाव सदा सर्वत्र देदीप्यमान ! हे ( दीदिवः ) तेजस्विन् ! ( वेधसः ) कर्त्ता, विद्वान्, ( विप्रासः ) कर्मण्य पुरुष ! ( त्वाम् आविवासन्ति ) यज्ञाग्नि-वत् तेरी ही सेवा करते हैं। इसी से सर्वोपरि नायक का भी वर्णन किया । इति द्वात्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सप्रथाः ऋतः कविः
पदार्थ
[१] हे (त्रातः) = रक्षक (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम् इत्) = आप ही (सप्रथा:) = अतिशयेन विस्तारवाले (असि) = हैं। (ऋतः) = सत्यस्वरूप हैं, (कविः) = क्रान्तदर्शी हैं। [२] हे (समिधान) = समानरूप से सदा दीप्त (दीदिवः) = देदीप्यमान प्रभो ! (वेधसः) = उत्तम यज्ञादि कर्मों के करनेवाले (विप्रासः) = ज्ञानी पुरुष (त्वां) = आपको (आविवासन्ति) = पूजते हैं। वस्तुतः प्रभु का पूजन इसी प्रकार होता है कि हम ज्ञान को प्राप्त करें और यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु सर्वत्र व्याप्त-सत्यस्वरूप व क्रान्तदर्शी हैं। उन देदीप्यमान प्रभु का उपासन ज्ञान व यज्ञ द्वारा होता है।
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