ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 7
यथा॑ चिद्वृ॒द्धम॑त॒समग्ने॑ सं॒जूर्व॑सि॒ क्षमि॑ । ए॒वा द॑ह मित्रमहो॒ यो अ॑स्म॒ध्रुग्दु॒र्मन्मा॒ कश्च॒ वेन॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । चि॒त् । ऋ॒द्धम् । अ॒त॒सम् । अग्ने॑ । स॒म्ऽजूर्व॑सि । क्षमि॑ । ए॒व । द॒ह॒ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । यः । अ॒स्म॒ऽध्रुक् । दुः॒ऽमन्मा॑ । कः । च॒ । वेन॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा चिद्वृद्धमतसमग्ने संजूर्वसि क्षमि । एवा दह मित्रमहो यो अस्मध्रुग्दुर्मन्मा कश्च वेनति ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । चित् । ऋद्धम् । अतसम् । अग्ने । सम्ऽजूर्वसि । क्षमि । एव । दह । मित्रऽमहः । यः । अस्मऽध्रुक् । दुःऽमन्मा । कः । च । वेनति ॥ ८.६०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, just as you bum to dust the withered wood on the earth, so, O greatest friend, pray burn him to naught whoever hates us and thinks ill of us.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सूक्त भौतिक अग्नीसाठीही प्रयुक्त होते. त्यामुळे याचे शब्द द्वयर्थक आहेत, जसा अग्नी मोठमोठ्या लाकडांनाही भस्म करून पृथ्वीत मिसळून टाकतो. तसे माझ्या शत्रूलाही भस्म कर. अशा मंत्रातून ही शिकवण मिळते की, अनिष्ट चिंता न करता परस्पर मित्रासारखा व्यवहार करत जीवन घालविले पाहिजे. या अल्प जीवनात जोपर्यंत होईल तोपर्यंत उपकार करत जावे ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! क्षमि=पृथिव्यां पृथिव्यादिलोकेषु । यथाचिद्=येन प्रकारेण । वृद्धं=जीर्णम् । अतसम्=शरीरम् । संजूर्वसि=संशोषयसि=दहसि । एव=एवमेव । हे मित्रमहः=मित्राणां मित्रभूतानां जीवानां पूज्यतम ! यः कश्चन । अस्मध्रुग्=अस्माकं द्रोग्धा । दुर्मन्मा=दुर्मतिः । तथाऽस्माकं द्रोहम् । वेनति=कामयते । तादृशं दह=भस्मीकुरु ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार ईश ! तू (यथाचित्) जिस प्रकार (क्षमि) पृथिव्यादि लोकों में वर्तमान (वृद्धम्) अतिशय जीर्ण (अतसम्) शरीर को (संजूर्वसि) जीवात्मा से छुड़ाकर नष्टभ्रष्ट कर देता है, क्योंकि तू संहारकर्त्ता भी है, (एव) वैसे ही (दह) उस दुर्जन को दग्ध कर दे, (मित्रमहः) हे सर्वजीवपूज्य ! (यः+अस्मध्रुग्) जो हम लोगों का द्रोही है, (दुर्मन्मा) दुर्मति और (वेनति) सबके अहित की ही कामना करता है ॥७ ॥
भावार्थ
यह सूक्त भौतिकाग्नि में भी प्रयुक्त होता है, अतः इसके शब्दादि द्व्यर्थक हैं । अग्नि पक्ष में जैसे अग्नि बहुत बढ़ते हुए काष्ठ को भी भस्मकर पृथिवी में मिला देता है, तद्वत् मेरे शत्रु को भी भस्म कर इत्यादि । ऐसे-२ मन्त्रों से यह शिक्षा मिलती है कि किसी की अनिष्टचिन्ता नहीं करनी चाहिये, किन्तु परस्पर मित्र के समान व्यवहार करते हुए जीवन बिताना चाहिये । इस थोड़े से जीवन में जहाँ तक हो, उपकार कर जाओ । इति ॥७ ॥
विषय
अग्निवत् परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
( यथा चित्) जिस प्रकार अग्नि (क्षमि) पृथिवी पर पड़े २ ( वृद्धम् अतसम्) बड़े भारी लकड़ को भी जला देता है (एव) उसी प्रकार हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! नायक ! हे ( मित्रमहः ) मित्रों से पूज्य वा मित्रों में महान् ! ( क्षमि ) भूमि पर विद्यमान ( वृद्धम् ) बढ़े हुए उसको आवश्य ( दह ) जला ( यः ) जो ( अस्मध्रुक् ) हमारा द्रोही ( दुर्मन्मा ) दुष्ट चित्त वाला, ( कः च वेनति ) कोई भी यज्ञ करता, शोभा पाता है, या अपने बाजे बजाता है या आदर चाहता है।
टिप्पणी
वेनति—वेनृ गतिज्ञान चिन्तानिशामनवादित्रग्रहणेषु। अथवा वेनतिर्गतिकर्मा, कान्तिकर्मा, अर्चतिकर्मा च।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
दुर्मन्मा द्रोही का संहार
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्निदेव ! (यथा) = जिस प्रकार (चित्) = निश्चय से (क्षमि) = इस पृथ्वी पर (वृद्धम्) = बढ़े हुए (अतसं) = शुष्क काष्ठ को (अग्नि संजूर्वसि) = सम्यक् दग्ध करता है, (एवा) = इसी प्रकार हे (मित्रमहः) = मित्रों से महान् तेजवाले प्रभो ! उस व्यक्ति को आप (दहः) = भस्म कर दीजिए यो (कश्च) = जो कोई (अस्मधुग्) = हमारा द्रोह करता है और (दुर्मन्मा) = दुर्मति होता हुआ (वेनति) [वेन् गतौ ] = हमारे पर आक्रमण करता है। [२] औरों का द्रोह करनेवाले व अशुभ चाहनेवाले स्वयं दग्ध हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम किसी के अशुभ का चिन्तन न करें। दुर्मन्मा [दुर्मति] बनकर औरों का द्रोह न करते रहें। ये द्रोह करनेवाले व्यक्ति प्रभु के प्रिय नहीं होते।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal