ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 18
केते॑न॒ शर्म॑न्त्सचते सुषा॒मण्यग्ने॒ तुभ्यं॑ चिकि॒त्वना॑ । इ॒ष॒ण्यया॑ नः पुरु॒रूप॒मा भ॑र॒ वाजं॒ नेदि॑ष्ठमू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकेते॑न । शर्म॑न् । स॒च॒ते॒ । सु॒ऽसा॒मनि॑ । अग्ने॑ । तुभ्य॑म् । चि॒कि॒त्वना॑ । इ॒ष॒ण्यया॑ । नः॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । आ । भ॒र॒ । वाज॑न् । नेदि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
केतेन शर्मन्त्सचते सुषामण्यग्ने तुभ्यं चिकित्वना । इषण्यया नः पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठकेतेन । शर्मन् । सचते । सुऽसामनि । अग्ने । तुभ्यम् । चिकित्वना । इषण्यया । नः । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजन् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥ ८.६०.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni loves to associate with the house of yajna where Sama hymns are chanted. O lord of light, Agni, the yajakas wait for you with anxious expectation and signs of welcome. Pray come with all your love and desire for us and bless us with the food, energy and holy ambition of all forms dearest to our heart for our protection and advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जेथे तुम्ही निवास करता त्याला पवित्र बनवा. तेथे सदैव ईश्वरस्तुती प्रार्थनेसाठी पवित्र स्थान ठेवा व त्याच्या आज्ञेप्रमाणे चला, तेव्हाच तुमचे कल्याण होईल ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वाधार ! सुसामनि=शोभनगानोपेते । यस्मिन् शर्मन्=शर्मणि=कल्याणविधायके यज्ञे । सचते=निवसते । तुभ्यम् । केतेन=प्रज्ञापकेन । चिकित्वना=विज्ञानेन । यजते इति शेषः । स त्वम् । इषण्यया=स्वकीयया इच्छया । नोऽस्मभ्यम् । पुरुरूपं=नानाविधम् । नेदिष्ठं=सर्वदा समीपे वर्तमानम् । वाजम्=विज्ञानम् । अन्नादिकञ्च । ऊतये=रक्षायै । आभर=आहर=आनय ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार ईश ! (तुभ्यम्) तुझको ही (केतेन) ज्ञापक प्रदर्शक (चिकित्वना) विज्ञान द्वारा मनुष्यगण पूजते हैं । जो तू सदा (सु+सामनि) सुन्दर सामगानों से युक्त (शर्मन्) मङ्गलमय यज्ञादि स्थान में (सचते) निवास करता है, वह तू (इषण्यया) स्वकीय इच्छा से (ऊतये) हम लोगों की रक्षा और साहाय्य के लिये (पुरुरूपम्) नानाविध (नेदिष्ठम्) और सदा समीप में रहनेवाले (वाजम्) ज्ञान, विज्ञान और अन्नादिक पदार्थ (नः) हम उपासकों को (आ+भर) दे ॥१८ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जहाँ तुम निवास करो, वहाँ पवित्र बना रक्खो । वहाँ सर्वदा ईश्वर की स्तुति प्रार्थना के लिये पवित्र स्थान बनाओ और उसी की आज्ञा पर सदा चला करो, तब ही तुम्हारा कल्याण होगा ॥१८ ॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! यह प्रजाजन ( चिकित्वना ) उत्तम ज्ञानयुक्त विद्वान् द्वारा ( केतेन ) ज्ञानपूर्वक ( तुभ्यम् ) तेरे ही ( सु-सामनि ) उत्तम समान भाव से युक्त निष्पक्षपात ( शर्मन् ) गृहवत् ( इषण्या ) इच्छापूर्वक ( नः ) हमें हमारी रक्षा के लिये ( पुरु-रूपं ) नाना प्रकार का ( नेदिष्ठं ) अति समीपतम, प्राप्य ( वाजं ) ऐश्वर्य ( आ भर ) प्राप्त करा।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-उपासना-कर्म
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (चिकित्वना) = ज्ञानी पुरुष के द्वारा (केतेन) = ज्ञानप्राप्ति के साथ (सुषामणि) = उत्तम (साम) = उपासनात्मक स्तोत्र वाले (शर्मन्) = सुखसाधन यज्ञ में (तुभ्यं सचते) = आपके लिए यह उपासक प्राप्त होता है। ज्ञानी पुरुषों के सम्पर्क में ज्ञान प्राप्त करता है, प्रभु के स्तोत्रों ज्ञान होते का उच्चारण करता है और सुखसाधन यज्ञों में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यह परमात्मा को प्राप्त करता है। [२] हे प्रभो ! (इषण्यया) = आप अपनी इच्छा से (नः) = हमारे लिए (पुरुरूपं) = अनेक रूपोंवाले (नेदिष्ठं) = अन्तिकतम सदा समीप रहनेवाले (वाजं) = ऐश्वर्य को (आभर) = प्राप्त कराइए। यह ऐश्वर्य (ऊतये) = हमारे रक्षण के लिए हो। यह धन विलास में फंसाकर हमारा विनाश करनेवाला न हो जाए।
भावार्थ
भावार्थ- 'ज्ञान, उपासना व यज्ञरूप कर्म' हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाले हों। प्रभु हमारे लिए जैसा ठीक समझें वैसा, विविध व स्थिररूप से रहनेवाला ऐश्वर्य प्राप्त कराएँ।
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