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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    शेषे॒ वने॑षु मा॒त्रोः सं त्वा॒ मर्ता॑स इन्धते । अत॑न्द्रो ह॒व्या व॑हसि हवि॒ष्कृत॒ आदिद्दे॒वेषु॑ राजसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शेषे॑ । वने॑षु । मा॒त्रोः । सम् । त्वा॒ । मर्ता॑सः । इ॒न्ध॒ते॒ । अत॑न्द्रः । ह॒व्या । व॒ह॒सि॒ । ह॒विः॒ऽकृतः॑ । आत् । इत् । दे॒वेषु॑ । रा॒ज॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शेषे वनेषु मात्रोः सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्या वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शेषे । वनेषु । मात्रोः । सम् । त्वा । मर्तासः । इन्धते । अतन्द्रः । हव्या । वहसि । हविःऽकृतः । आत् । इत् । देवेषु । राजसि ॥ ८.६०.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You pervade in the forests and in the earth upto heaven. The mortals light and raise you holily, and, without sloth or delay, you carry the sacred offerings of the devoted celebrants to the divinities over earth and heaven and shine among them.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    द्यावा पृथ्वीचे नाव माता आहे. ईश्वराच्या नावावरही अग्निहोत्र इत्यादी शुभ कर्म केले पाहिजे. कारण अग्नी इत्यादी देवांमध्येही तोच विराजमान आहे. तो माणसाचे प्रत्येक कर्म पाहतो. तोच कर्मफलदाता आहे. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने ! मात्रोः=द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्तमानेषु । “द्यावापृथिव्यौ मातरावुच्येते” वनेषु=संसारेषु । त्वं शेषे=स्वपिषि व्याप्नोषि । त्वा=त्वामेव । मर्तासः=मर्त्याः । समिन्धते=प्रदीपयन्ति हृदये । आदित्=अनन्तरमेव । हे भगवन् ! त्वमतन्द्रः=अनलसः सन् हविष्कृतो= यजमानस्य । यागे । हव्या=हव्यानि । वहसि=यथास्थानं प्रापयसि । त्वमेव देवेषु=सूर्य्यादिषु । राजसि=प्रकाशसे ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे सर्वव्याप्त देव ! तू (मात्रोः) द्युलोक और पृथिवी के मध्य वर्तमान सर्व संसारों में (शेषे) व्याप्त है । (मर्तासः) मनुष्य (त्वा) तुझको ही (सम्+इन्धते) हृदय में प्रज्वलित करते हैं या तेरे ही नाम पर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं । (आद्+इत्) तब तू (हविष्कृतः) उन यजमानों के (हव्या) हव्य पदार्थों को (अतन्द्रः) अनलस होकर (वहसि) इधर-उधर ले जाता है, तू ही (देवेषु) सूर्य्यादिक देवों में (राजसि) विराजमान है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    द्यावा पृथिवी का नाम माता है । ईश्वर के नाम पर ही अग्निहोत्रादि शुभकर्म करने चाहियें, क्योंकि अग्नि आदि देवों में वही विराजमान है । वह मनुष्य के प्रत्येक कर्म को देखता है । वही कर्मफलदाता है ॥१५ ॥

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    विषय

    अरणियों में अग्नि के तुल्य तेजस्वी की प्रजाओं में स्थिति। (

    भावार्थ

    हे राजन् ! विद्वन् ! तू ( वनेषु मात्रोः ) काष्ठों में या दो उत्पादक अरणियों में अग्नि के समान ( वनेषु ) सेवने योग्य ऐश्वर्यों और ( मात्रोः ) माता पिता रूप विद्वान् अविद्वान् प्रजाओं के बीच बालकवत् ( शेषे ) सुख से रह। ( त्वा मर्त्तासः सम् इन्धते ) तुझे शत्रुमारक वीर जन प्रदीप्त, तेजस्वी बनाते हैं। तू ( हविः कृतः ) उत्तम अन्न उत्पन्न करनेवाले प्रजाजन के दिये करादि को ( अतन्द्रः ) अनालसी होकर ( वहसि ) धारण कर ( आत् इत् ) और विजयेच्छुक वीर पुरुषों के बीच किरणों में सूर्यवत् ( राजसि ) राजावत् प्रकाशित हो। इति चतुस्त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    यज्ञशील देववृत्तिवाले उपासकों में प्रभु का प्रकाश

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (वनेषु) = [वन् संभक्तौ] संभजनशील पुरुषों में (मात्रो:) = ज्ञान व श्रद्धारूप निर्माण करनेवाले [मा] तत्त्वों के होने पर (शेषे) = निवास करते हैं। (त्वा) = आपको (मर्तासः) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले - मन को मार लेनेवाले पुरुष (समिन्धते) = अपने हृदयों में समिद्ध करते हैं। [२] हे प्रभो! आप (हविष्कृतः) = हवि को करनेवाले यज्ञशील पुरुष के (हव्या) = हव्य पदार्थों को (अतन्द्रः) = सब प्रकार की तन्द्रा से रहित हुए हुए वहति प्राप्त कराते हैं। यज्ञशील पुरुष को प्रभु ही यज्ञ के सब साधनों को प्राप्त कराते हैं। (आत् इत्) = अब शीघ्र ही (देवेषु) = देववृत्ति वाले पुरुषों में (राजसि) = दीप्त होते हैं। देववृत्तिवाले पुरुष हृदयों में आपका दर्शन कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का निवास ज्ञान व श्रद्धासम्पन्न उपासकों में होता है। मन को मार लेनेवाले पुरुष प्रभु को अपने में समिद्ध करते हैं। यज्ञशील पुरुषों को प्रभु ही हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। देववृत्ति वाले पुरुषों में प्रभु दीप्त होते हैं।

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