ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 19
अग्ने॒ जरि॑तर्वि॒श्पति॑स्तेपा॒नो दे॑व र॒क्षस॑: । अप्रो॑षिवान्गृ॒हप॑तिर्म॒हाँ अ॑सि दि॒वस्पा॒युर्दु॑रोण॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । जरि॑तः । वि॒श्पतिः॑ । ते॒पा॒नः । दे॒व॒ । र॒क्षसः॑ । अप्रो॑षिऽवान् । गृ॒हऽप॑तिः । म॒हान् । अ॒सि॒ । दि॒वः । पा॒युः । दि॒रो॒ण॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने जरितर्विश्पतिस्तेपानो देव रक्षस: । अप्रोषिवान्गृहपतिर्महाँ असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । जरितः । विश्पतिः । तेपानः । देव । रक्षसः । अप्रोषिऽवान् । गृहऽपतिः । महान् । असि । दिवः । पायुः । दिरोणऽयुः ॥ ८.६०.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, universally adored, master ruler and protector of the people, scourge of the selfish and wicked, refulgent and generous, supreme protective presence of the home that never neglects or forsakes the inmates, you are great protector of happiness and heavens too, and abide in the heart and home of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! परमेश्वरालाच आपला व जगाचा पालक मानून पूजा करा. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरप्यग्निं विशिनष्टि ।
पदार्थः
हे अग्ने हे देव ! जरितः=स्तुतिशिक्षक ! त्वं विश्पतिः=प्रजापतिरसि । त्वम् । रक्षसः=दुष्टानाम् । तेपानः=सन्तापकोऽसि । त्वम् । अप्रोषिवान्=निवसन् गृहपतिरसि । त्वं महान् । त्वं दिवस्पायुः=दिवः=सम्पूर्णस्य संसारस्य पालकः । पुनः । दुरोणयुः=भक्तानां हृदयगृहाभिलाषी वर्तसे ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अग्नि का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार सर्वशक्ते (देव) सर्वदिव्यगुणयुक्त (जरितः) हे स्तुतिशिक्षक, ज्ञानदायक भगवन् ! तू (विश्पतिः) समस्त मनुष्य जाति का स्वामी और रक्षक है । हे ईश ! तू ही (रक्षसः+तेपानः) दुष्ट जनों को तपानेवाला है । तू ही (अप्रोषिवान्) न कभी छोड़नेवाला सदा निवासी (गृहपतिः) गृहपति है, (महान्) तू महामहान् (दिवः+पायुः+असि) तू केवल गृहपति ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण जगत् का भी पति है, (दुरोणयुः) तू भक्तजनों के हृदय-रूप गृह में निवास करनेवाला है ॥१९ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! भगवान् को ही अपना और जगत् का पालक मानकर पूजो ॥१९ ॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! हे ( जरितः ) उत्तम उपदेश करने हारे ! हे ( देव ) दानशील ! तू ( रक्षसः ) दुष्टों को ( तेपानः ) संतप्त, पीड़ित करता हुआ, ( विश्पतिः ) प्रजाओं का पालक है। तू ( अप्रोषिवान् ) कभी प्रवास में न जाने वाले ( गृह-पतिः ) गृहस्वामी के समान ( दुरोणयु: ) गृहवत् राष्ट्रको दुःख से प्राप्त होने योग्य उत्तमपद की अभिलाषा करने वाला और ( दिवः महान् पायु: ) ज्ञान, राजसभा, तेज, और भूमि का बड़ा पालक ( असि ) है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
दिवस्पायुः दुरोणयुः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रकाशस्वरूप (जरितः) [ जरिता = गरिता] = ज्ञान का उपदेश करनेवाले (देव) = सब व्यवहारों को सिद्ध करनेवाले प्रभो! आप (विश्पतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक हैं, (रक्षसः तेपान:) = राक्षसी वृत्तियों को संतप्त करके दूर करनेवाले हैं। [२] (अप्रोषिवान्) = कभी भी प्रवास न करनेवाले, अर्थात् सदा हमारे साथ रहनेवाले आप हैं। (गृहपति) = इस शरीरगृह के आप ही तो रक्षक हैं। (महान् असि) = आप पूज्य हैं। (दिवस्पायुः) = ज्ञान के रक्षक हैं और इस प्रकार (दुरोणयुः) = [दुर्, ओट अपनयने] सब बुराइयों के अपनयन को हमारे साथ जोड़नेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ज्ञानोपदेश के द्वारा हमारे जीवनों को पवित्र बनाते हैं। वे ज्ञानरक्षण द्वारा सब बुराइयों का अपनयन करनेवाले हैं। सब प्रजाओं के रक्षक हैं, हमारे घरों के स्वामी हैं।
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