ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 17
प्र बो॑धयोषो अ॒श्विना॒ प्र दे॑वि सूनृते महि । प्र य॑ज्ञहोतरानु॒षक्प्र मदा॑य॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । बो॒ध॒य॒ । उ॒षः॒ । अ॒श्विना॑ । प्र । दे॒वि॒ । सू॒नृ॒ते॒ । म॒हि॒ । प्र । य॒ज्ञ॒ऽहो॒तः॒ । आ॒नु॒षक् । प्र । मदा॑य । श्रवः॑ । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र बोधयोषो अश्विना प्र देवि सूनृते महि । प्र यज्ञहोतरानुषक्प्र मदाय श्रवो बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । बोधय । उषः । अश्विना । प्र । देवि । सूनृते । महि । प्र । यज्ञऽहोतः । आनुषक् । प्र । मदाय । श्रवः । बृहत् ॥ ८.९.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(उषः) हे उषः (अश्विना) सेनाध्यक्षसभाध्यक्षौ ! (प्रबोधय) प्रबोधितौ कुरु (देवि) हे देवि (सूनृते) हे सुनेत्रि ! (महि) महति (प्र) तौ प्रबोधय (यज्ञहोतः) हे यज्ञप्रयोजिके ! (आनुषक्) स्वस्मिन् निरन्तरं (प्र) प्रबोधय (मदाय) हर्षाय (बृहत्, श्रवः) बहु धनम् (प्र) प्रबोधय ॥१७॥
विषयः
राजामात्यादिभिरपि प्रातर्जागरितव्यमित्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
चेतनत्वमारोप्य वर्णनमिदम् । हे उषः=हे उषे देवि ! त्वमस्माकं राजानौ ! अश्विना=अश्विनौ । सदा । प्रबोधय=प्रातःकाले जागरय । हे देवि=दिव्यरूपे ! हे सूनृते=सुष्ठुनेत्रि ! हे महि=महति । त्वं सर्वदा अश्विनौ । प्रबोधय । हे यज्ञहोतः=यज्ञानां शुभकर्मणां होतः कर्तः । त्वमपि । आनुषक्=सततं प्रबोधय । त्वमपि प्रातरेव उत्तिष्ठ । मदाय=आनन्दप्राप्तये ईश्वरस्य । बृहत्=महत् । श्रवः=कीर्तिं प्रणय ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(उषः) हे उषादेवि ! (अश्विना) आप सेनाध्यक्ष तथा सभाध्यक्ष को (प्रबोधय) स्वोत्पत्तिकाल में प्रबोधित करें (देवि) हे देवि ! (सूनृते) सुन्दरनेत्री (महि) महत्त्वविशिष्ट (प्र) प्रबोधित करें (यज्ञहोतः) हे यज्ञों की प्रेरणा करनेवाली (आनुषक्) निरन्तर (प्र) प्रबोधित करें (मदाय) हर्षोत्पत्ति के लिये (बृहत्, श्रवः) बहुत धन को (प्र) प्रबोधित करें ॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि प्रत्येक श्रमजीवी उषाकाल में जागकर स्व-स्व कार्य्य में प्रवृत्त हों। उषाकाल में प्रबुद्ध पुरुष को विद्या, ऐश्वर्य्य, हर्ष, उत्साह तथा नीरोगतादि सब महत्त्वविशिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं ॥१७॥
विषय
राजा और अमात्यादिकों को भी प्रातःकाल जागना उचित है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।
पदार्थ
यहाँ आरोप करके वर्णन है । (उषः) हे उषा देवि ! प्रातःकाल तू (अश्विना) हमारे राजा और अमात्यादिकों को (प्र+बोधय) उठाओ, प्रातःकाल ही जगाओ । (देवि) हे दीप्यमाना (सूनृते) हे अच्छी नायिके (महि) हे महती देवि ! तू अश्विद्वय को (प्र) अपने समय में उठा (यज्ञहोतः) हे शुभ कर्मों के करनेवाले विद्वान् ! आप भी (आनुषक्) सदा प्रातःकाल (प्र) उठा करें और अन्य को उठावें और उठकर (मदाय) आनन्दप्राप्ति के लिये परमेश्वर का (बृहत्+श्रवः) बहुत यशोगान कीजिये ॥१७ ॥
भावार्थ
क्या राजा क्या प्रजा, सब ही प्रातःकाल उठकर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करें ॥१७ ॥
विषय
उत्तम देवी विदुषी के गुण और कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( उषः ) उषा प्राभातिक सूर्य की कान्ति के समान सुशोभित देवि ! हे ( देवि ) विदुषि ! ज्ञान का प्रकाश देने वाली ! दानशीले ! हे ( सुनृते ) उत्तम सत्य ज्ञान से युक्त ! हे ( महि ) पूज्ये ! जिस प्रकार उषा सब को जगाती है उसी प्रकार तू भी ( प्र प्र बोधय ) अच्छी प्रकार सब को ज्ञानोपदेश करके जगा । हे देवि ! गृह में तू ही सबसे प्रथम उठकर पति, बालक आदि को भी जगाया कर । हे ( यज्ञ-होतः ) यज्ञ में होता के समान गृहस्थ, यज्ञ में सत्पात्रों में धन अन्न आदि के देने वाले पुरुष ! तू भी ( आनुषक् ) निरन्तर ( प्र बोधय ) उत्तम ज्ञान का उपदेश किया कर । ( मदाय ) तृप्ति और आनन्द प्राप्ति के लिये ( बृहत् श्रवः ) बहुत उत्तम अन्न प्रदान कर और ( बृहत् श्रवः ) बड़े उत्तम श्रवण योग्य वेदोपदेश देकर सबको शुद्ध और ज्ञानवान् कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शशकर्ण: काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ४, ६ बृहती। १४, १५ निचृद् बृहती। २, २० गायत्री। ३, २१ निचृद् गायत्री। ११ त्रिपाद् विराड् गायत्री। ५ उष्णिक् ककुष् । ७, ८, १७, १९ अनुष्टुप् ९ पाद—निचृदनुष्टुप्। १३ निचृदनुष्टुप्। १६ आर्ची अनुष्टुप्। १८ वराडनुष्टुप् । १० आर्षी निचृत् पंक्तिः। १२ जगती॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रातः कालीन कार्यक्रम
पदार्थ
[१] हे (उषः) = उषाकाल की देवि ! (अश्विना प्रबोधयः) = तू प्राणापान को हमारे में प्रबुद्ध कर। अर्थात् हम प्रात: प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। हे (देवि) = प्रकाशयुक्त (सूनृते) = प्रिय सत्य वाणीवाली उषे ! (महि) = [मह पूजायाम्] पूजा को (प्र) [ बोधय ] = हमारे में प्रबुद्ध कर। हम प्रातः प्रबुद्ध होकर प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हों। [२] हे (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञहोतः) = यज्ञों में हव्यों को आहुत करनेवाली ! तू (प्र) = हमें प्रबुद्ध कर हम प्रातः यज्ञों को करनेवाले हों। हे उषे ! तू (मदाय) = आनन्द को प्राप्त कराने के लिये (बृहत् श्रवः) = बहुत उत्कृष्ट ज्ञान को (प्र) = हमारे में प्रबुद्ध कर।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रातः जागकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों । प्राणसाधना के साथ 'प्रभु-पूजन-यज्ञ व स्वाध्याय' को करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine dawn, great lady of truth and leading light of a new day, awaken the Ashvins, harbingers of new knowledge and awareness, and O inspirer of the day’s yajnic activity, relentlessly exhort men and women to work for the joy of life and win great prosperity, honour and fame.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा भाव आहे, की प्रत्येक श्रमजीवीने उष:काली उठून आपापल्या कार्यात प्रवृत्त व्हावे. उष:काली उठणाऱ्या पुरुषाला विद्या, ऐश्वर्य, हर्ष, उत्साह व निरोगीपणा इत्यादी व सर्व महत्त्वाचे विशिष्ट पदार्थ प्राप्त होतात.॥१७॥
हिंगलिश (1)
Subject
Routine of Government staff
Word Meaning
Government staff should be trained to cultivate virtuous habits, active life style (early to rise early to bed), constant improvement of their learning and knowledge by reading Vedas and performing Yagnas. राज्ञकर्मचारियों को सत्य प्रिय,दिव्य वेदज्ञान , अग्निहोत्रादि से नियमित जीवन चर्या का आचरण करना चाहिये.
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