ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
यद॒प्सु यद्वन॒स्पतौ॒ यदोष॑धीषु पुरुदंससा कृ॒तम् । तेन॑ माविष्टमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒प्ऽसु । यत् । व॒नस्पतौ॑ । यत् । ओष॑धीषु । पु॒रु॒ऽदं॒स॒सा॒ । कृ॒तम् । तेन॑ । मा॒ । अ॒वि॒ष्ट॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदप्सु यद्वनस्पतौ यदोषधीषु पुरुदंससा कृतम् । तेन माविष्टमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अप्ऽसु । यत् । वनस्पतौ । यत् । ओषधीषु । पुरुऽदंससा । कृतम् । तेन । मा । अविष्टम् । अश्विना ॥ ८.९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(पुरुदंससा) हे बहुकर्माणौ ! (यत्, अप्सु) यत् पौरुषं जलेषु (यत्, वनस्पतौ) यच्च वनस्पतिषु (यत्, ओषधीषु) यत् रसाधारेष्वन्नेषु (कृतम्) पौरुषं प्रकटीकृतम् (अश्विना) हे बलिनौ ! (तेन) तेन पौरुषेण (मा) माम् (अविष्टम्) रक्षतम् ॥५॥
विषयः
राजकर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
हे पुरुदंससा=पुरुदंससौ=बहुकर्माणौ । अश्विना=अश्विनौ राजामात्यौ । अप्सु=जलेषु निमित्तेषु । यत्कर्म । युवां कृतम्=कुरुतम् । तथा । वनस्पतौ=वनानां पतिर्वनस्पतिः तस्मिन् निमित्ते । अत्र जातावेकवचनम् । वृक्षेषु निमित्तेषु यत्कर्म कुरुतम् । एवमेव । ओषधीषु=ओषः पाक आसु धीयत इत्योषधयो व्रीह्यादयः । कर्मण्यधिकरणे चेति दधातेरधिकरणे किप्रत्ययः । दासीमारादिषु पठितत्वात् पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । ओषधेश्च विभक्तावप्रथमायामिति दीर्घः । व्रीह्यादिष्वोषधीषु निमित्तेषु च । यत्कर्म कुरुतम् । तेन कर्मणा मामपि प्रजाम् । अविष्टम्=रक्षतम् ॥५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(पुरुदंससा) हे अनेक कर्मोंवाले ! (यत्, अप्सु) जो पौरुष आपने जलों में (यद्, वनस्पतौ) जो वनस्पतियों में (यत्, ओषधीषु) और जो रसाधार अन्नों में (कृतम्) प्रकट किया है, (अश्विना) हे बलवाले ! (तेन) उस पौरुष से (मा) मुझे (अविष्टम्) सुरक्षित करें ॥५॥
भावार्थ
हे पौरुषसम्पन्न सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आपने जो पौरुष जलों तथा वनस्पतियों की विद्या जानने में किया है और उनके द्वारा आप अन्नों के संग्रह में सर्व प्रकार कुशल हैं, कृपा करके आप अपने उपदेश द्वारा हमें भी उक्त विद्याओं से सम्पन्न करें, जिससे हम अन्नवान् और अन्न के भोक्ता हों ॥५॥
विषय
राजकर्त्तव्य का उपदेश देते हैं ।
पदार्थ
(पुरुदंससा) हे बहुकर्मा (अश्विना) राजन् और अमात्य ! आप (अप्सु) जलों की वृद्धि के निमित्त (यत्+कृतम्) जो कर्म करते हैं (वनस्पतौ) विविध वृक्षों के वृद्ध्यर्थ (यत्) जो कर्म करते हैं (ओषधीषु) व्रीहि आदिकों के निमित्त (यत्) जो कर्म करते हैं (तेन) उन सबकी सहायता से (माम्) मुझ प्रजा की (अविष्टम्) रक्षा करें ॥५ ॥
भावार्थ
राजा जलों, वनस्पतियों, यवादिकों की वृद्धि के लिये सदा प्रयत्न करे ॥५ ॥
विषय
जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय और उत्तम भोगों को भोगनेहारे ! हे ( पुरु-दंससा ) नाना कर्मों को करने में समर्थ विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( यत् अप्सु ) जो जलों, ( यद् वनस्पतौ ) जो वनस्पति और ( यद् ओषधीषु ) जो ओषधि, अन्नादि के प्राप्त करने के लिये ( कृतम् ) यत्न करते हो ( तेन ) उससे ही ( मा अविष्टम् ) तुम दोनों प्रजावत् मेरी रक्षा करते रहो । इति त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शशकर्ण: काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ४, ६ बृहती। १४, १५ निचृद् बृहती। २, २० गायत्री। ३, २१ निचृद् गायत्री। ११ त्रिपाद् विराड् गायत्री। ५ उष्णिक् ककुष् । ७, ८, १७, १९ अनुष्टुप् ९ पाद—निचृदनुष्टुप्। १३ निचृदनुष्टुप्। १६ आर्ची अनुष्टुप्। १८ वराडनुष्टुप् । १० आर्षी निचृत् पंक्तिः। १२ जगती॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
[जल व ओषधि का सेवन] वानस्पतिक भोजन
पदार्थ
[१] हे (पुरुदंससा) = पालक व पूरक कर्मोंवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = जो तेज [धर्म] आप (अप्सु) = जलों का प्रयोग होने पर (यद् वनस्पतौ) = जो वनस्पतियों का प्रयोग होने पर तथा (यत् ओषधीषु) = जो तेज आप ओषधियों का प्रयोग होने पर (कृतम्) = उत्पन्न करते हो। (तेन) = उस तेज से (मा अविष्टम्) = मेरा रक्षण करो। [२] यहाँ 'अप्सु, वनस्पतौ, ओषधीषु' इन शब्दों का प्रयोग स्पष्ट प्रतिपादन कर रहा है कि योगसाधना में खान-पान की शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। प्राणायाम के साथ मनुष्य का शाकभोजी होना आवश्यक है। सादा खान-पान योगसाधना में सहायक होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम जलों व ओषधियों के प्रयोग के साथ प्राणापान की साधना करते हुए तेजस्वी बनें और अपना रक्षण करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, heroic powers of nature’s complementary forces, the power and vitality which you have vested in the waters, herbs and trees is multifarious. Pray, with that same vitality and power, bless and protect me too and let me advance.
मराठी (1)
भावार्थ
हे पौरुषसंपन्न सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, तुम्ही जो पराक्रम जल व वनस्पतीची विद्या जाणण्यात केलेला आहे व त्यांच्याद्वारे तुम्ही अन्नाचा संग्रह करण्यात सर्व दृष्टीने कुशल आहात. कृपा करून आपल्या उपदेशाद्वारे आम्हाला वरील विद्यांनी संपन्न करा. ज्यामुळे आम्ही अन्नानी युक्त व अन्नाचे भोक्ते व्हावे. ॥५॥
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