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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शशकर्णः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॒न्तरि॑क्षे॒ यद्दि॒वि यत्पञ्च॒ मानु॑षाँ॒ अनु॑ । नृ॒म्णं तद्ध॑त्तमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒न्तरि॑क्षे । यत् । दि॒वि । यत् । पञ्च॑ । मानु॑षान् । अनु॑ । नृ॒म्णम् । तत् । ध॒त्त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्तरिक्षे यद्दिवि यत्पञ्च मानुषाँ अनु । नृम्णं तद्धत्तमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्तरिक्षे । यत् । दिवि । यत् । पञ्च । मानुषान् । अनु । नृम्णम् । तत् । धत्तम् । अश्विना ॥ ८.९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे अश्विनौ ! (यत्, नृम्णम्) यत् धनम् (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्षलोके (यत्, दिवि) यद्युलोके (यत्, पञ्चमानुषान्, अनु) यत् ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रनिषादान् पञ्चविधमानुषान् अनु (तत्, धत्तम्) तदस्यै प्रजायै दत्तम् ॥२॥

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    विषयः

    सर्वस्मात् स्थानात् प्रजापुष्ट्यर्थं राजभिर्धनमुपार्जनीयमिति द्वितीया शिक्षा ।

    पदार्थः

    हे अश्विना=अश्वयुक्तौ राजानौ । अश्विनी च अश्वीचेत्यश्विनौ राज्ञी राजा चेत्यर्थः । अन्तरिक्षे=मध्यलोके । मनुष्यहितं यद्धनमस्ति । दिवि=द्योतनात्मके द्युलोके=उत्तमे सूर्य्यलोके । यद्धनमस्ति । पुनः । पञ्चसंख्याकान् मानुषान्=मनुष्यान् । अनु=मनुष्यलोके इत्यर्थः । यद्धनमस्ति । पञ्चविधा मनुष्याः सन्तीति वेदेन प्रतिपाद्यते । तत् त्रिविधम् । नृम्णम्=धनम् । इह स्वदेशे । धत्तम्=स्थापयतमापदि प्रजारक्षायै ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे व्यापक (यत्, नृम्णम्) जो धन (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्षलोक में (यत्, दिवि) जो द्युलोक में (यत्, पञ्च, मानुषान्, अनु) जो पाँच मनुष्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद में है (तत्, धत्तम्) वह इस प्रजा को दें ॥२॥

    भावार्थ

    हे सर्वत्र प्रसिद्ध सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप ऐश्वर्य्यसम्पन्न होने के कारण प्रजापालन करने में समर्थ हैं, सो हे भगवन् ! उक्त स्थानों से धन लेकर धनहीन प्रजा को सम्पन्न करें ॥२॥

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    विषय

    राजा को सर्वस्थान से प्रजापुष्ट्यर्थ धन उपार्जनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे अश्वयुक्त राजा तथा राज्ञी ! (अन्तरिक्षे) मध्यलोक में (यत्) जो (नृम्णम्) मनुष्यहितकारी धन है (दिवि) उपरिष्ठ लोक में (यत्) जो धन है और (पञ्च) पाँच (मानुषान्+अनु) पाँच प्रकार के मनुष्यों में अर्थात् इस मर्त्यलोक में (यत्) जो धन है, (तत्) उन तीन प्रकार के धनों को (धत्तम्) अपने देश में आपत्ति से प्रजाओं को बचाने के लिये स्थापित कीजिये ॥२ ॥

    भावार्थ

    राजा को उचित है कि प्रजाओं के अभ्युदय के लिये सर्वविध धन स्वदेश में स्थापित करें ॥२ ॥

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    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    यत् ) जो ( नृम्णम् ) धन ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में ( यत् दिवि ) जो आकाश में और ( यत् ) जो ( पञ्च मानुषान् अनु ) पांचों मनुष्यों के अनुकूल सुखदायी धन है ( तत् ) वह धन हे (अश्विना) जितेन्द्रिय एवं अश्वादि के स्वामी वर्गो ! आप लोग अवश्य ( धत्तम् ) धारण किया करो। आकाश में वायु, जल, मेघ, वृष्टि आदि और आकाश में सूर्य चन्द्र नक्षत्रादि पांचों मनुष्यों के अनुकूल भूमि पर्वत नदी जलाशय जन, भृत्य, सुवर्ण, हिरण्यादि। ये राष्ट्रीय त्रिविध धन मनुष्य मात्र के सुखप्रद होने से 'नृम्ण' हैं। इनकी अवश्य रक्षा करनी चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शशकर्ण: काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ४, ६ बृहती। १४, १५ निचृद् बृहती। २, २० गायत्री। ३, २१ निचृद् गायत्री। ११ त्रिपाद् विराड् गायत्री। ५ उष्णिक् ककुष् । ७, ८, १७, १९ अनुष्टुप् ९ पाद—निचृदनुष्टुप्। १३ निचृदनुष्टुप्। १६ आर्ची अनुष्टुप्। १८ वराडनुष्टुप् । १० आर्षी निचृत् पंक्तिः। १२ जगती॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सन्तोष - ज्ञान व स्वास्थ्य' रूप धन

    पदार्थ

    [१] मानव जीवन को सुखी करनेवाला धन 'नृम्ण' कहलाता है। हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = जो (नृम्णम्) = धन (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में होता है। अर्थात् जो सन्तोष-आत्मतृप्ति-रूप धन हृदय में निवास करता है, (तत्) = उस धन को (धत्तम्) = हमारे लिये धारण करिये। प्राणसाधना से हृदय निर्मल होता है, चित्तवृत्ति बाह्य धनों के लिये बहुत लालायित नहीं होती। इस प्रकार हृदय में एक सन्तोष के आनन्द का अनुभव होता है। [२] (यत्) = जो (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान-धन है, उसे आप हमारे लिये धारण करिये। प्राणसाधना से काम-वासना का विनाश होकर ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है। [२] हे प्राणापानो ! (यत्) = जो (पञ्च) = पाँच, (मानुषान्) = मानव सम्बन्धी वस्तुओं के (अनु) = अनुकूलतावाला धन है, उसे आप हमारे लिये प्राप्त कराइये मानव सम्बन्धी पाँच वस्तुएँ सर्वप्रथम शरीर के बनानेवाले पाँच महाभूत हैं 'पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश'। फिर पाँच प्राण हैं, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व पाँच 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय' हैं। इन सब के अनुकूल धनों को ये प्राणापान हमारे लिये प्राप्त करायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदय के सन्तोषरूप धन को, मस्तिष्क के ज्ञानरूप धन को तथा मानव पञ्चकों के पूर्ण स्वास्थ्यरूप धन को ये प्राणापान हमारे लिये प्राप्त करायें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whatever manly strength and wealth there be in heaven and mid space worthy of five classes of people, Ashvins, bear and bring for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सर्वत्र प्रसिद्ध सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, तुम्ही ऐश्वर्यसंपन्न असल्यामुळे प्रजापालन करण्यास समर्थ आहात. त्यासाठी हे भगवाना! (द्युलोक, अंतरिक्षलोक व श्रीमंत माणसे) यापासून धन घेऊन धनहीन प्रजेला संपन्न करा. ॥२॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Environmental Sustainability

    Word Meaning

    जो आकाशीय शुद्ध वायु और वर्षा जल; जो द्युलोकीय सौर ऊर्जा और प्रकाश,और जो पृथ्वी पर फैली (वनस्पति- जीवजन्तु) सम्पत्ति है उस को हमारे राष्ट्र में स्थापित करो. Protect the clean air , develop rain water conservation, Maximize utilization of Solar energy, protect soil, green cover and biodiversity.

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