ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 10
आ व॑च्यस्व सुदक्ष च॒म्वो॑: सु॒तो वि॒शां वह्नि॒र्न वि॒श्पति॑: । वृ॒ष्टिं दि॒वः प॑वस्व री॒तिम॒पां जिन्वा॒ गवि॑ष्टये॒ धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । व॒च्य॒स्व॒ । सु॒ऽद॒क्ष॒ । च॒म्वोः॑ । सु॒तः । वि॒शाम् । वह्निः॑ । न । वि॒श्पतिः॑ । वृ॒ष्टि॑म् । दि॒वः । प॒व॒स्व॒ । री॒तिम् । अ॒पाम् । जिन्व॑ । गोऽइ॑ष्टये । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वो: सुतो विशां वह्निर्न विश्पति: । वृष्टिं दिवः पवस्व रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वच्यस्व । सुऽदक्ष । चम्वोः । सुतः । विशाम् । वह्निः । न । विश्पतिः । वृष्टिम् । दिवः । पवस्व । रीतिम् । अपाम् । जिन्व । गोऽइष्टये । धियः ॥ ९.१०८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुदक्ष) हे सर्वज्ञ ! (चम्वोः) जीवप्रकृतिरूपव्याप्यपदार्थेषु (सुतः) सर्वत्र विद्यमानः (विशां) प्रजानां (वह्निः, न) अग्निरिव (विश्पतिः) धारकः, भवान् (आ, वच्यस्व) मम मनसि आगच्छ (दिवः) द्युलोकस्य (वृष्टिं) वर्षणं (पवस्व) पुनातु (अपां, रीतिं) कर्मणां गतिं च पुनातु (गविष्टये, धियः) ज्ञानस्य कर्मणां चाभिलाषिणं जनं (जिन्व) शक्त्या परिपूरयतु ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुदक्ष) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! आप (चम्वोः) प्रकृति तथा जीवरूप व्याप्य पदार्थों में (सुतः) सर्वत्र विद्यमान (विशाम्) सब प्रजाओं के (वह्निः) अग्नि (न) समान (विश्पतिः) वोढा=नेता हैं, आप (आ, वच्यस्व) हमें प्राप्त हों, (दिवः) द्युलोक की (वृष्टिम्) वृष्टि को (पवस्व) पवित्र करें, (अपां, रीतिम्) कर्मों की गति को पवित्र करें, (गविष्टये) ज्ञान और (धियः) कर्मों की इच्छा करनेवाले पुरुष को (जिन्व) अपनी शक्ति से परिपूर्ण करें ॥१०॥
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि एक पदार्थ को स्थानान्तर को प्राप्त कर देती है अर्थात् अपनी तेजोमयी शक्ति से गतिशील बना देती है, इसी प्रकार परमात्मा ज्ञानी तथा शुभकर्मी पुरुष को गतिशील बनाता है, जिससे पुरुष शक्तिसम्पन्न होकर उसकी समीपता को उपलब्ध करता है ॥१०॥
विषय
जिन्वा गविष्टये धियः
पदार्थ
हे (सुदक्ष) = उत्तम बल वाले सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी के निमित्त, मस्तिष्क व शरीर के स्वास्थ्य के लिये (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (आवच्यस्व) = शरीर में चारों ओर प्राप्त हो । [वंच् To go, arrive at] शरीर के अंग-प्रत्यंग में पहुँचा हुआ तू उन सब को सशक्त बना । तू (विशां वह्निः न) = प्रजाओं के लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले के समान है। (विश्पतिः) = सब प्रजाओं का रक्षक है । (दिवः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से (वृष्टि) = आनन्द की वृष्टि को (पवस्व) = प्राप्त करा । योगमार्ग में धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली आनन्द की वृष्टि को तू सिद्ध कर। (अपां रीतिम्) = कर्मों के प्रवाह को तू प्राप्त करा । तेरे रक्षण के द्वारा हम सतत क्रियाशील बनें। (गविष्टये) = आत्मान्वेषण के लिये (धियः) = बुद्धियों को (जिन्व:) = प्रीणित कर । तेरे रक्षण से हमें बुद्धि की वह सूक्ष्मता प्राप्त हो, जो आत्मदर्शन का साधन बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाता है, हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाता है। आनन्द की वृष्टि का अनुभव कराता है, निरन्तर क्रियाशील बनाकर हमें सूक्ष्म बुद्धिवाला बनाता है जिससे हम प्रभु दर्शन कर सकें ।
विषय
सेनापति और परमेश्वर प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
हे (सु-दक्ष) उत्तम बलशालिन् ! उत्तम तेजस्विन् ! तू (सुतः) अभिषिक्त होकर (चम्वोः) दो मुख्य सेनाओं के ऊपर (आ- वच्यस्व) अध्यक्ष पद पर आ और (विशां वह्निः) प्रजाओं के बीच उनका कार्य-भार अपने ऊपर लेने हारा, उनको वहन करता हुआ, (विश्पतिः न) प्रजाओं के स्वामी के तुल्य (दिवः वृष्टिं) आकाश से बरसती वृष्टि को मेघ के तुल्य (दिवः) तेज की (वृष्टिं) शत्रु को काट गिराने वाली सेना को (पवस्व) प्रेरित कर और (अपां रीतिम्) जलों की धारा के तुल्य (अपां रीतिम्) आप्त जनों की शैली, परिपाटी को प्रवृत्त कर। (गविष्टये) भूमि के इच्छुक कृषकवत् भूमि के प्रार्थी प्रजाजन के उपकारार्थ (धियः जिन्व) नाना कर्मों को प्रवृत्त करा। (२) इसी प्रकार परमेश्वर ‘प्रजापति’ है, वह (चम्वोः) आकाश और भूमि में व्याप रहा है। वह आकाश से जलों की धारा और सुखमय वर्षा करे। और सर्व जन्तुओं के उपकारार्थ वा स्तुति-वाणी के निमित्त हमारी (धियः) बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करे। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Spirit omnipotent of divine action, invoked, adored and vibrant in the internal world of mind and soul and in the external world of nature, sustainer and ruler as burden bearer of humanity, stimulate the radiation of light from heaven, sanctify the shower of bliss, and inspire and illuminate the mind and intelligence for the seeker of enlightenment.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे अग्नी एका पदार्थाचे स्थानांतर करतो. अर्थात्, आपल्या तेजस्वी शक्तीने गतिशील बनवितो. त्याचप्रकारे परमात्मा ज्ञानी व शुभ कर्म करणाऱ्या पुरुषाला गतिमान करतो. ज्यामुळे पुरुष शक्तिसंपन्न होऊन त्याचे सामीप्य प्राप्त करतो. ॥१०॥
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