ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
यस्य॑ ते पी॒त्वा वृ॑ष॒भो वृ॑षा॒यते॒ऽस्य पी॒ता स्व॒र्विद॑: । स सु॒प्रके॑तो अ॒भ्य॑क्रमी॒दिषोऽच्छा॒ वाजं॒ नैत॑शः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । पी॒त्वा । वृ॒ष॒भः । वृ॒ष॒ऽयते॑ । अ॒स्य । पी॒ता । स्वः॒ऽविदः॑ । सः । सु॒ऽप्रके॑तः । अ॒भि । अ॒क्र॒मी॒त् । इषः॑ । अच्छ॑ । वाज॑म् । न । एत॑शः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते पीत्वा वृषभो वृषायतेऽस्य पीता स्वर्विद: । स सुप्रकेतो अभ्यक्रमीदिषोऽच्छा वाजं नैतशः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । पीत्वा । वृषभः । वृषऽयते । अस्य । पीता । स्वःऽविदः । सः । सुऽप्रकेतः । अभि । अक्रमीत् । इषः । अच्छ । वाजम् । न । एतशः ॥ ९.१०८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य, ते, पीत्वा) यं तवानन्दं पीत्वा (वृषभः) कर्मवृष्टिकारकः कर्मयोगी (वृषायते) सदुपदेशको भवति (अस्य, पीता) इममानन्दं पीत्वा (सुप्रकेतः) सुप्रज्ञो जनः (इषः, अभ्यक्रमीत्) शत्रूनतिक्रामति (एतशः) अश्वः (न) यथा (वाजम्, अच्छ) सङ्ग्राममतिक्रामति एवं हि कर्मयोगी सर्वबलान्यतिक्रामति, इमं पीत्वा (स्वर्विदः) विज्ञानी भवति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य, ते) जिस तुम्हारे (पीत्वा) आनन्द के पान करने से (वृषभः) कर्मों की वृष्टि करनेवाला कर्मयोगी (वृषायते) वर्षतीति वृषः, वृषु सिञ्चने, इस धातु से सदुपदेश द्वारा सिञ्चन करनेवाले पुरुष के लिये यहाँ ‘वृष’ शब्द आया है, जिसके अर्थ सदुपदेश के हैं, (अस्य, पीता) इस आनन्द के पीने से (सुप्रकेतः) शोभन प्रज्ञावाला होकर (इषः, अभ्यक्रमीत्) शुत्रओं को अतिक्रमण कर जाता है, (एतशः) अश्व (न) जैसे (वाजम्) संग्राम का (अच्छ) अतिक्रमण करता है, इसी प्रकार कर्मयोगी पुरुष सब बलों का अतिक्रमण करता और (स्वर्विदः) विज्ञानी बनता है ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र का आशय यह है कि वेद के सदुपदेश द्वारा कर्मयोगी शोभन प्रज्ञावाला हो जाता है। यहाँ अश्व के दृष्टान्त से कर्मयोगी के बल और पराक्रम का वर्णन किया है कि जिस प्रकार अश्व संग्राम में विजय प्राप्त करता है, इसी प्रकार कर्मयोगी विज्ञान द्वारा सब शत्रुओं का पराजय करनेवाला होता है ॥२॥
विषय
धर्म-प्रकाश-प्रभु प्रेरणा श्रवण
पदार्थ
हे सोम ! (यस्य ते पीत्वा) = जिस तेरा पान करके (वृषभः) = अपने अन्दर शक्ति का सेचन करनेवाला यह पुरुष (वृषायते) = अत्यन्त धर्म का आचरण करता है [वृषा हि भगवान् धर्मः], (अस्य पीताः) = इस सोम का पान करनेवाले (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाले होते हैं। सोमरक्षण से सशक्त बनकर मनुष्य धर्म की वृत्ति वाला होता है, और यह प्रकाश को प्राप्त करता है । (सः) = वह (सुप्रकेतः) = उत्तम ज्ञान वाला (इषः अभि अक्रमीत्) = प्रभु प्रेरणाओं की ओर इस प्रकार गतिवाला होता है, (न) = जैसे कि (एतश:) = एक अश्व (वाजं अच्छा) = संग्राम की ओर गतिवाला होता है । सोमरक्षण से ज्ञान वृद्धि होकर हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा सुन पड़ती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण हमें शक्तिशाली व धर्मप्रवण बनाता है, सोम पान से जीवन प्रकाशमय हो जाता है, ज्ञान को बढ़ाकर यह हमें प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनाता है ।
विषय
स्तुत्य आत्मा से सुख की आशंसा। उसका वर्णन।
भावार्थ
(यस्य ते) जिस तेरे परम रस का पान करके, (वृषभः) बलवान् पुरुष भी सूर्यवत् (वृषायते) मेघ तुल्य आनन्द-ज्ञान-जल की अन्यों के प्रति वृष्टि करता है। (अस्य स्वः-विदः) इस सुख प्राप्त करने वा कराने वाले की रक्षा में (सः) वह (सु-प्र-केतः) उत्तम ज्ञानवान् जीव (एतशः वाजं नः) संग्राम को जाने वाले अश्व के तुल्य (इषः अभि अक्रमीत्) नाना इच्छायोग्य पदार्थों और लोकों को प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Having drunk of the Soma spirit of light, action and joy, Indra, the soul, overflows with strength and virile generosity. Having drunk of it, the soul receives the light of heavenly knowledge. And the soul, also, blest with inner light of spiritual awareness, rushes to achieve food, energy and enlightenment as a warrior wins the battle of his challenges.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा आशय असा की वेदाच्या सदुपदेशाद्वारे कर्मयोगी सुंदर प्रज्ञावान होतो. येथे अश्वाच्या दृष्टान्ताने कर्मयोग्याच्या बल व पराक्रमाचे वर्णन केलेले आहे की ज्या प्रकारे अश्व युद्धात विजय प्राप्त करतो त्याच प्रकारे कर्मयोगी विज्ञानाद्वारे सर्व शत्रूंचा पराजय करणारा असतो. ॥२॥
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