ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 9
अ॒भि द्यु॒म्नं बृ॒हद्यश॒ इष॑स्पते दिदी॒हि दे॑व देव॒युः । वि कोशं॑ मध्य॒मं यु॑व ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्यु॒म्नम् । बृ॒हत् । यशः॑ । इषः॑ । प॒ते॒ । दि॒दी॒हि । दे॒व॒ । दे॒व॒ऽयुः । वि । कोश॑म् । म॒ध्य॒मम् । यु॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दिदीहि देव देवयुः । वि कोशं मध्यमं युव ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । द्युम्नम् । बृहत् । यशः । इषः । पते । दिदीहि । देव । देवऽयुः । वि । कोशम् । मध्यमम् । युव ॥ ९.१०८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्युम्नं) दीप्तिमत् (बृहद्यशः) बृहद्यशोयुक्तमैश्वर्यं (इषस्पते) हे ऐश्वर्यपते परमात्मन् ! (अभि, दिदीहि) मह्यं ददातु (देवयुः) दीप्तिमान् (देव) हे दिव्यरूप ! (मध्यमं, कोशं) अन्तरिक्षकोशं (वि, युव) विशेषेण मया योजयतु ॥९॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(द्युम्नम्) दीप्तिवाला (बृहत्, यशः) बड़े यशवाला (इषस्पते) हे ऐश्वर्य्यों के पति परमात्मन् ! (अभि, दिदीहि) आप हमको ऐश्वर्य्य प्रदान करें। (देवयुः) दीप्ति को प्राप्त (देव) दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (मध्यमम्, कोशम्) अन्तरिक्षकोश को (वि, युव) आप हमें विशेषरूप से समाश्रित करें ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमपिता से ऐश्वर्य्यप्राप्ति की प्रार्थना की गई है कि हे परमात्मन् ! आप ऐश्वर्य्यरूप सम्पूर्ण कोषों के पति हैं, कृपा करके हमें भी विशेषरूप से सम्पत्तिशील बनावें ॥९॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
अभिद्युम्नं बृहद्यश: इषस्पते दिदोहि देव देवयुम।
वि कोशं मध्यमं युव।।ऋ•९.१०८.९ सा•५७९, १०११
वैदिक भजन ११४२ वां
राग खमाज
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल:- अध्धा
भाग १
आत्मा दिव्य आत्मा
देता है सुचेतना
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
ज्योत जले मन की
अन्धकार मिटाना ।।
संसार अन्न भंडार है
आत्मा है भोक्ता
सम्बन्ध कितना दिव्य है
प्रभु की है योग्यता
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
ज्योत जले मन की
अन्धकार मिटाना
सुनना, देखना, चखना
सभी दिव्य हो तेरा
इषस्पति तू है स्वामी
भोग्य जग है तेरा
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना
दिव्यता की ज्योत से
दर्शन प्रभु के कर
होना चाहता है यशस्वी
अपने मुख को उज्जवल कर
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना ।।
भाग २
बुरा भला जग कह सकता
भूल की है संभावना
भ्रान्ति रहित है परमेश्वर
ज्ञान स्वरूप है प्रमा
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना
तू अन्तर्यामी की ही
प्रसन्नता का लाभ कर
दिव्य स्वभाव को
सम्मुख प्रकाशित कर
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना ।।
"देवयु" है परमेश्वर
देव-संतों का प्यारा
फैली भुजाओं का
ले ले तू सहारा
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना
भाग ३
आनन्द कोष है परमेश्वर
है वही मेरे अन्दर
खोलना है आनंदकोष
पाना है परमेश्वर
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना
अन्नमय से आनन्द कोष
जगाएंगे सारे होश
पाना है दिव्यानन्द
ले ले के सारे बोध
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अंधकार मिटाना।।
देव- आत्मा ज्योतियां इन्द्रियां
जग में थे भटक रहे
सुधी हुआ जब से आत्मा
देव प्रसाद बंट रहे
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना
सूखे काठ का था जीवन
दिव्य रस का स्रोत बहा
आत्मा- इन्द्रियों के कारण
देव- राज्य मिल गया
यही तो है देवपना
ज्योति प्रज्ञा पाना
जले ज्योत मन की
अन्धकार मिटाना ।।
७.९.२०२३
८.३० रात्रि
शब्दार्थ:-
सुचेतना= भली प्रकार की चेतना
प्रज्ञा= बुद्धि ,समझ
इषस्पति=अन्न के स्वामी
प्रमा= चेतना, बोध
देवयु= जो देव स्वभाव की कामना करता हो
सुधी= बुद्धिमान
Vyakhya
मधुकोष
संसार अन्न का भाण्डार है।आत्मा अत्ता है-- भोक्ता है; और संसार अन्न-- उसका भोग्य। भोक्ता और भोग्य का सम्बन्ध कितना दिव्य है! मैं देखता हूं ,संसार दिखाई देता है, मेरी आंखें भी उन्हीं भूतों की बनी हैं, जिनका दृश्य जगत। फिर यह देखते कैसे हैं? आंखों से, कानों से नासिका से,मुख से मैं संसार का भोग कर रहा हूं । मेरे
भौतिक अंग भोग के साधन हैं। इनमें चिति है, चेतना है। यही उनकी दिव्यता है-- देवपना है। यह देवपना आत्मा के कारण है। मैं आत्मा हूं ।
ऐ मेरी दिव्य आत्मा ! तू प्रकाशित हो। अपने दिव्य स्वभाव को प्रकट कर। तेरा देखना, सुनना, सूंघना चखना सभी दिव्य हो। तू इषस्पति है-- अन्न मात्र का स्वामी, भोग्य जगत का भोक्ता। मेरे इषस्पति देव! तुम दिव्य भोक्ता हो।
इस दिव्यता के प्रकाश से तू उस प्रकाश स्वरूप परमेश्वर के दर्शन कर जिसकी महिमा महान है। तू यशस्वी होना चाहता है तो उसी के यश से यशस्वी हो। उसी के सम्मुख अपना मुख उज्जवल कर। तू देव है या असुर? इस रहस्य का पूर्ण ज्ञान इस प्रकाश स्वरूप को है जिससे छिपी से छिपी हुई कोई बात छुप नहीं सकती। संसार बुरा कहे या भला उसमें भूल की बड़ी संभावना है। प्रभु भ्रान्ति रहित है। वह ज्ञान स्वरूप है। कोई दुनिया को धोखा दे ले, दे ले। और तो और अपने आप को भी धोखा दे ले,दे ले।
प्रभु को धोखा नहीं दिया जा सकता। तू उसे अन्तर्यामी ही की प्रसन्नता का लाभ कर। वास्तविक यश-- महान यश-- उसी की प्रसन्नता में है। तू अपने दिव्य स्वभाव को उसी के सम्मुख प्रकाशित कर ।
प्रभु दिव्यता प्रिय है--" देवयु" है। वह देवों का देव-- संतों का संत-- अपने प्यारों की ओर हाथ पसार पसारकर बढ़ रहा है। तू उसकी फैल रही भुजाओं की ओर बढ़। उस वत्सल पिता की वात्सलता का आनन्द लूट। तू देव बनकर ही उस देवों के देव की महान दिव्यता का रसास्वादन कर सकता है।
प्रभु स्वयं आनन्द कोष हैं। यह कोष मेरे बाहर नहीं अन्दर है। जब मैंने अन्न और सत्ता के सम्बन्ध को समझ लिया तो मेरा अन्नमय कोष खुल गया। जब मैं प्राणों में उस प्राणधार को बसा लिया तो प्राणमय कोष के किवाट खुल गए। जब मैं अपना मनन तथा ज्ञान उसी के अर्पण कर दिया तो मनोमय कोष तथा विज्ञानमय कोष भी मेरे बन्धन का कारण ना रहे। अब मुझे इन सारे व्यापारों में एक दिव्य रस की अनुभूति होती है । खाते, पीते श्वास लेते, सोचते समझते विचार करते एक दिव्य आनन्द की प्रतीति हो रही है ।सब कोषों के अन्दर का मध्य का बीच का कोष खुल गया है। अपने आप खुल गया है। जब से मेरी इंद्रियां देव हुईं हैं मेरा अंतरात्मा देव बना है, यह दिव्य कोष अपने आप खुल गया है । इन्द्रियाँ देव थीं पर इन्हें इसका ज्ञान न था ,यह भटक जाती थीं। अन्तरात्मा देवता पर उसे अपने देव होने की खबर न थी। जब से आत्मा ने अपने आप को पहचान लिया है मेरी इन्द्रियों को आत्म प्रसाद बांट दिया है, मेरी सभी इन्द्रियां ऋषि हो गई हैं। मेरी आत्मा आत्मदर्शी हो गई है । आत्मदर्शी ही परमात्मदर्शी है। उसने अपना दिव्य स्थान पहचान लिया है। आत्मा की परम स्थिति आनन्दमय कोष में है, अर्थात् प्रभु की अनन्त कृपा में । शेष सभी कोष उसे आनन्दमय कोष ही की ज्योति से प्रतिबिंबित हो रहे हैं। उसी का अलौकिक रस इन सूखे काष्ठों को सरस बना रहा है। यह दिव्य रस का स्रोत खुल गया है, खुल गया है। मेरे आत्मा की दिव्यता से खुल गया है। मेरी इन्द्रियों के देव बनते ही खुल गया है।
विषय
वि कोशं मध्यमं युव
पदार्थ
हे (देव) = प्रकाशमय ! (इषस्पते) = हमारे जीवनों प्रभु प्रेरणाओं के रक्षक सोम ! तू हमें (द्युम्नं अभि) = ज्ञान ज्योति की ओर ले चल । तथा (बृहद् यश:) = महान् यश की ओर ले चल । (देवयुः) = दिव्यगुणों को हमारे साथ जोड़ने की कामना वाला यह सोम है। तू (दिदीहि) = हमें दिव्यगुणों व प्रकाश को इस (मध्यमम् कोशम्) = मनोमय कोश को, जिसके एक ओर अन्नमय व प्राणमय है, तथा दूसरी ओर विज्ञानमय व आनन्दमय, उस मध्यम कोश को (वियुव) = सब बुराइयों से पृथक् कर ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से 'ज्योति, यश व दिव्यगुण' प्राप्त होते हैं। इस के रक्षण से मन की पवित्रता सिद्ध होती है।
विषय
प्रभु से आनन्दमय कोष में प्रवेश करने में बाधक मध्यमकोशों के खोलने की प्रार्थना। पक्षान्तर में सेनापति का वर्णन।
भावार्थ
हे (इषः पते) अन्नों और समस्त कामनाओं के स्वामिन् ! तू (बृहत्) बड़े भारी (द्युम्नं) तेज और (यशः) कीर्त्ती को (अभि दिदीहि) लक्ष्य कर, प्रकाश कर (देवयुः) देवों, विद्वानों और जीवों की कामना करने वाला उनका प्रिय स्वामी, तू हे (देव) दान देनेहारे दातः ! तू (मध्यमं कोशम्) बीच के खज़ाने को अन्तरिक्षस्थ मेघ के तुल्य (वि युव) खोलदे। (२) सब इच्छाओं का स्वामी होने से आत्मा ‘इषः पति’ है। इन्द्रियों का स्वामी होने से ‘देवयु’ है। मनोमय कोश मध्यकोश है, प्रथम कोश अन्नमय और अन्तिम कोश आनन्दमय है। प्राणमय, विज्ञानमय और मनोमय बीच के कोश हैं जो आत्म-प्रत्यक्ष में बाधक हैं। सो इच्छा-शक्ति की तीव्रता अर्थात् एकाग्रता से उनका भी बन्धन टूटता है और आत्मा का स्वच्छ तेजोमय रूप प्रकट होता है। सेनाएं ‘इषः’ हैं उनका पति ‘इषःपति’ सेनापति ‘सोम’ है। वह प्रतापमय यश के लिये चमके विजयाभिलाषियों का स्वामी ‘देवयु’ है। विजिगीषु होने से ‘देव’ है। वह मध्यम कोश को पृथक् करे और युद्ध करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O refulgent generous Soma spirit of life, lover of divinities, master of food and energy for body, mind and soul, give us the light to rise to the honour and excellence of higher life towards divinity, and for that pray open the middle cover of the soul and let us rise to the state of divine bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराला ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी प्रार्थना केलेली आहे की, हे परमेश्वरा! तू ऐश्वर्यरूप संपूर्ण कोशाचा पती आहेस. कृपा करून आम्हाला ही विशेषरूपाने संपत्तिवान बनव. ॥९॥
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