ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 6
य उ॒स्रिया॒ अप्या॑ अ॒न्तरश्म॑नो॒ निर्गा अकृ॑न्त॒दोज॑सा । अ॒भि व्र॒जं त॑त्निषे॒ गव्य॒मश्व्यं॑ व॒र्मीव॑ धृष्ण॒वा रु॑ज ॥
स्वर सहित पद पाठयः । उ॒स्रियाः॑ । अप्याः॑ । अ॒न्तः । अश्म॑नः । निः । गाः । अकृ॑न्तत् । ओज॑सा । अ॒भि । व्र॒जम् । त॒त्नि॒षे॒ । गव्य॑म् । अश्व्य॑म् । व॒र्मीऽइ॑व । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । आ । रु॒ज॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य उस्रिया अप्या अन्तरश्मनो निर्गा अकृन्तदोजसा । अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज ॥
स्वर रहित पद पाठयः । उस्रियाः । अप्याः । अन्तः । अश्मनः । निः । गाः । अकृन्तत् । ओजसा । अभि । व्रजम् । तत्निषे । गव्यम् । अश्व्यम् । वर्मीऽइव । धृष्णो इति । आ । रुज ॥ ९.१०८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः) यः परमात्मा (अप्याः, उस्रियाः) व्याप्तिशीलस्वशक्तिभिः (अन्तरश्मनः) मेघान्तः (ओजसा, अकृन्तत्) बलेन छिन्दन् (निर्गाः) सदा शब्दायते (व्रजम्, अभि) ब्रह्माण्डमभि (तत्निषे) सर्वत्र व्याप्तः, यश्च (गव्यम्) ज्ञानसम्बन्धिनीं (अश्व्यम्) कर्मसम्बन्धिनीं च शक्तिं (वर्मीव) कवचमिव धारयति तस्मादिदं प्रार्थनीयं यत् (धृष्णो) हे धृतिरूप परमात्मन् ! (आरुज) भवान् मम बाधकशक्तीर्नाशयतु ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (अप्याः, उस्रियाः) अपनी व्याप्तिशील शक्तियों से (अन्तरश्मनः) मेघों के भीतर (ओजसा, अकृन्तत्) बल से छेदन करता हुआ (निर्गाः) निरन्तर शब्दायमान होकर (व्रजम्) इस ब्रह्माण्डरूपी समुदाय के समक्ष (अभि, तत्निषे) चारों ओर व्याप्त हो रहा है और जो (गव्यम्) ज्ञान तथा (अश्व्यम्) कर्म की शक्तियों को (वर्मीव) कवच के समान धारण कर रहा है, उससे यह प्रार्थना है कि (धृष्णो) हे धृतिरूप परमात्मन् ! (आरुज) आप हमारी बाधक शक्तियों को नाश करें ॥६॥
भावार्थ
वह पूर्ण परमात्मा जो इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है, वही मङ्गलमय प्रभु सब विघ्नों को निवृत्त करके कल्याण का देनेवाला और वही सब पापों का क्षय करनेवाला है ॥६॥
विषय
वर्मी इव धृष्णो आरुज
पदार्थ
(यः) = जो सोम (अश्मनः अन्तः) = पाषाण तुल्य दृढ़ शरीर के अन्दर (अप्याः) = कर्मों के लिये हितकर (उस्त्रिया:) = प्रकाश की किरणों को तथा (गाः) = इन्द्रियों को ओजसा ओजस्विता के साथ (निः अकृन्तत्) = वासनारूप वृत्र के आवरण से बाहर करता है [निरच्छिनत्] = वृत्र से इन्हें छुड़ा लेता है । सोमरक्षण से ज्ञानेन्द्रियाँ व प्रकाश की किरणें वासना के आवरण से रहित होती हैं। हे सोम ! तू (गव्यम्) = ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रिय सम्बन्धी (व्रजम्) = समूह को (अभितत्त्रिषे) = विस्तृत शक्ति वाला करता है। हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले सोम ! (वर्मी इव) - = कवचधारी योद्धा के समान तू हमारे शत्रुओं को (आरुज) = समन्तात् भग्न करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम शरीर को पाषाण तुल्य दृढ़ बनाता है, उसमें कर्तव्य कर्मों के प्रकाश को प्राप्त कराता है, इन्द्रिय समूह को वासना बन्धन से छुड़ाता है, वासना रूप शत्रुओं को दूर भगाता है ।
विषय
आत्मा में स्तुति-प्रेरक प्रभु।
भावार्थ
(यः) जिस प्रकार सूर्य (ओजसा) तेज, पराक्रम से (अश्मनः अन्तः) मेघ में से (गाः अप्याः उस्त्रियः) वेग से जाने वाली जल की धाराओं को (निः अकृन्तत्) निकाल कर बाहर खण्ड २ करता है, उसी प्रकार (यः) जो प्रभु (ओजसा) अपने बल से (अश्मनः अन्तः) भोक्ता आत्मा के अन्तःकरण से (उस्त्रियाः) ऊपर को स्वयं आने वाली (अप्याः) कर्म प्रवृत्तियों और (गाः) नाना स्तुति वाणियों को प्रेरित करता है और (गव्यं व्रजं) वाणियों के व्यापने योग्य मार्ग और (गव्यं व्रजम्) जीवों के चलने योग्य मार्ग को (अभि तत्निषे) बनाता है, विस्तृत करता है, (धृष्णो) हे दुष्टों के नाशक प्रभो ! वह तू (वर्मी-इव) कवचधारी वीर पुरुष के समान (आ रुज) बाधक कारणों को दूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You who with your might and lustre break open the cloud and release the streams of water from the womb of the cloud, who pervade and extend your power over the vault of the universe, pray come like a warrior in arms and break open the paths of progress in knowledge and advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
तो पूर्ण परमात्मा जो या ब्रह्मांडात सर्वत्र परिपूर्ण भरलेला आहे. तोच मंगलमय प्रभू सर्व विघ्नांना निवृत्त करून कल्याण करणारा आहे. तोच सर्व पापांचा क्षय करणारा आहे. ॥६॥
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