ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 5
ए॒ष स्य धार॑या सु॒तोऽव्यो॒ वारे॑भिः पवते म॒दिन्त॑मः । क्रीळ॑न्नू॒र्मिर॒पामि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्यः । धार॑या । सु॒तः । अव्यः॑ । वारे॑भिः । प॒व॒ते॒ । म॒दिन्ऽत॑मः । क्रीळ॑न् । ऊ॒र्मिः । अ॒पाम्ऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्य धारया सुतोऽव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः । क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । स्यः । धारया । सुतः । अव्यः । वारेभिः । पवते । मदिन्ऽतमः । क्रीळन् । ऊर्मिः । अपाम्ऽइव ॥ ९.१०८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषः, स्यः) स परमात्मा (अव्यः) यो हि सर्वरक्षकः सः (वारेभिः, सुतः) सुसाधनैः साक्षात्कृतः (धारया, पवते) आनन्दवृष्ट्या पुनाति (मदिन्तमः) आनन्दस्वरूपः सः (अपां, ऊर्मिः,, इव) समुद्रवीचय इव (क्रीळन्) क्रीडन् अखिलब्रह्माण्डं निर्माति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषः, स्यः) वह पूर्वोक्त परमात्मा (अव्यः) जो सर्वरक्षक है, (वारेभिः, सुतः) श्रेष्ठ साधनों द्वारा साक्षात्कार किया हुआ (धारया) आनन्द की वृष्टि से (पवते) पवित्र करता है, (मदिन्तमः) वह आनन्दस्वरूप (अपाम्, उर्मिः, इव) समुद्र की लहरों के समान (क्रीळन्) क्रीड़ा करता हुआ सब ब्रह्माण्डों का निर्माण करता है ॥५॥
भावार्थ
यहाँ समुद्र की लहरों का दृष्टान्त अनायास के अभिप्राय से है, साकार के अभिप्राय से नहीं अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य अनायास ही श्वासादि व्यवहार करता है, इसी प्रकार लीलामात्र से परमात्मा इस संसार की रचना करता है ॥५॥
विषय
मदिनाम:
पदार्थ
(एषः) = यह (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (स्यः) = वह सोम (अव्यः) = रक्षणीय है । (वारेभिः) = वासनाओं के निवारण के द्वारा यह पवते हमें प्राप्त होता है। (मदिन्तमः) = अतिशयेन उल्लास का जनक है। यह सोम हमारे जीवनों में (अपाम् ऊर्मिः इव) = कर्मों के प्रकाश की तरह [अप्-कर्म, ऊर्मि = प्रकाश] (क्रीडन्) = क्रीडा करता हुआ होता है। यह हमें कर्मशील बनाता है, कर्त्तव्य कर्मों के मार्ग का दर्शन कराता है और हमें क्रीडक की मनोवृत्ति वाला बनाता है। हम कर्म करते हैं, पर फल में उलझते नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - यह सोम 'मदिन्तम' है। हमें कर्तव्य मार्ग का दर्शन कराता है और अनासक्त भाव से कर्म करने की योग्यता प्राप्त कराता है।
विषय
अमृतत्व की प्राप्ति।
भावार्थ
(क्रीड़न अपां ऊर्मिः इव) खेलते जलों के तरंग के तुल्य (एषः) यह (स्यः) वह आत्मा, (धारय सुतः) धारा, वेदवाणी द्वारा उपासित होकर (अव्यः वारेभिः) परम रक्षक के श्रेष्ठ वरण योग्य उत्तम साधनों से (पवते) प्राप्त होता है। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
It is that Soma, most joyous spirit of life’s beauty, which, when realised by controlled minds of choice meditative order, flows pure and purifying by the stream of ecstasy, playful and exalting like waves of the sea.
मराठी (1)
भावार्थ
येथे समुद्राच्या लहरीचा दृष्टान्त अनायास (स्वभावाविकरीत्या) दिलेला आहे. साकारच्या अभिप्रायाने नाही. अर्थात्, ज्या प्रकारे मनुष्य अनायासे श्वास इत्यादी व्यवहार करतो त्याच प्रकारे लीलया परमात्मा या जगाची रचना करतो. ॥५॥
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