ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 12
वृषा॒ वि ज॑ज्ञे ज॒नय॒न्नम॑र्त्यः प्र॒तप॒ञ्ज्योति॑षा॒ तम॑: । स सुष्टु॑तः क॒विभि॑र्नि॒र्णिजं॑ दधे त्रि॒धात्व॑स्य॒ दंस॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । वि । ज॒ज्ञे॒ । ज॒नय॑न् । अम॑र्त्यः । प्र॒ऽतप॑न् । ज्योति॑षा । तमः॑ । सः । सुऽस्तु॑तः । क॒विऽभिः॑ । निः॒ऽनिज॑म् । द॒धे॒ । त्रि॒ऽधातु॑ । अ॒स्य॒ । दंस॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा वि जज्ञे जनयन्नमर्त्यः प्रतपञ्ज्योतिषा तम: । स सुष्टुतः कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । वि । जज्ञे । जनयन् । अमर्त्यः । प्रऽतपन् । ज्योतिषा । तमः । सः । सुऽस्तुतः । कविऽभिः । निःऽनिजम् । दधे । त्रिऽधातु । अस्य । दंससा ॥ ९.१०८.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अमर्त्यः) अमरणधर्मा स परमात्मा (वृषा) सर्वकामनाप्रदः (जनयन्) स्वज्योतिः प्रकाशयन् (विजज्ञे) जायमान उच्यते (ज्योतिषा) स्वज्ञानज्योतिषा च (तमः, प्रतपन्) अज्ञानं दूरीकुर्वन् (कविभिः) विद्वद्भिः वर्णितः (निर्णिजम्) निराकारपदं (दधे) दधाति (अस्य, दंससा) अस्यापूर्वकर्मणा (त्रिधातु) गुणत्रयाश्रयभूता प्रकृतिः स्थिरास्ति (सः) इत्थम्भूतः परमात्मा (सुस्तुतः) सम्यगुपासितः सद्गतिं प्रददाति ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अमर्त्यः) अमरणधर्मा परमात्मा (वृषा) जो सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाला है, वह (जनयन्) अपनी ज्योति को प्रकाश करता हुआ (विजज्ञे) जायमान कथन किया जाता है, (ज्योतिषा) अपनी ज्ञानरूपी ज्योति से (तमः, प्रतपन्) अज्ञान को दूर करता हुआ (कविभिः) विद्वानों से वर्णित (निर्णिजम्) निराकार के पद को (दधे) धारण करता है और (अस्य, दंससा) इसके अपूर्व कर्मों से (त्रिधातु) तीनों गुणों की आश्रयतभूत प्रकृति स्थिर है, (सः) उक्तगुणसम्पन्न परमात्मा (सुस्तुतः) भली-भाँति उपासना किया हुआ सद्गति प्रदान करता है ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा को जायमान उपचार से कथन किया गया है, वस्तुतः नहीं, वास्तव में वह अजर, अमरादि गुणसम्पन्न है। वह अपने उपासकों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और उनको सद्गति का प्रदाता है ॥१२॥
विषय
वृषा अमर्त्यः
पदार्थ
(वृषा) = सब सुखों का वर्षक, (जनयन्) = हमारी शक्तियों का प्रादुर्भाव करता हुआ यह सोम (अमर्त्यः) = अमरण धर्मा विजज्ञे जाना जाता है, यह हमें रोगों से आक्रान्त नहीं होने देता । (ज्योतिषा) = यह ज्ञान की ज्योति के द्वारा (तमः) = अज्ञानान्धकार को (प्रतपन्) = नष्ट करता है । (सः) = वह (कविभिः) = ज्ञानी पुरुषों से (सुष्टुतः) = सम्यक् स्तुत होता है। ज्ञानी पुरुष इसके गुणों को समझते हैं । यह (निर्णिजं दधे) = शोधन को धारण करता है, जीवन को शुद्ध बनाता है । वह सोम (अस्य दंससा) = अपने शत्रु विनाशक कर्मों के द्वारा (त्रिधातु दधे) = ' शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों के धारणात्मक कर्म को धारण करता है। यह शरीर को सशक्त बनाता है, मन को पवित्र बनाता है, और मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - यह सोम शरीर में शक्ति का सेचन करके हमें नीरोग बनाता है, ज्ञान ज्योति के द्वारा अन्धकार को दूर करता है शोधन करता हुआ 'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों का धारण करता है ।
विषय
सर्वप्रकाशक पिता प्रभु।
भावार्थ
(सः) वह (अमर्त्यः) अमरणधर्मा, अविनाशी, प्रभु (जनयन्) जगत् को उत्पन्न करता हुआ ही (वृषा) वीर्यसेक्ता पिता के समान (वि जज्ञे) विशेष रूप से जाना जाता है। वह (ज्योतिषा) अपने तेज से (प्र-तपन्) सूर्यवत् तपता हुआ (तमः वि जनयन्) अन्धकार को दूर करता है। वह (कविभिः सु-स्तुतः) विद्वान् क्रान्तदर्शी जनों से भली प्रकार स्तुति को प्राप्त करता और (निः-निजं दधे) अपना विशुद्ध रूप धारता है। (अस्य दंससा) इसके ही कर्म-सामर्थ्य से (त्रि-धातु) यह जगत् तीन लोकों में तीन गुणों से तीन दोषों से इस देहवत् धारित है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Generous immortal Soma, supreme spirit of eternal light, manifests, generating life and removing darkness with light. Celebrated and worshipped by visionary sages, it manifests in their consciousness wearing its immaculate garb of threefold Prakrti of matter, mind and motion by virtue of its omnipotence.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात जायमान उपचाराने कथन केलेले आहे. वास्तविक नाही. वास्तविक तो अजर, अमर इत्यादी गुणांनी संपन्न आहे. तो आपल्या उपासकांच्या कामनांना पूर्ण करणारा आहे व त्यांना सद्गती देणारा आहे. ॥१२॥
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