अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 12
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - पुरोबृहती त्रिष्टुब्गर्भार्षी पङ्क्तिः
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
52
अ॑न॒न्तं वित॑तं पुरु॒त्रान॒न्तमन्त॑वच्चा॒ सम॑न्ते। ते ना॑कपा॒लश्च॑रति विचि॒न्वन्वि॒द्वान्भू॒तमु॒त भव्य॑मस्य ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒न्तम् । विऽत॑तम् । पु॒रु॒ऽत्रा । अ॒न॒न्तम् । अन्त॑ऽवत् । च॒ । सम॑न्ते॒ इति॑ सम्ऽअ॑न्ते । ते इति॑ । ना॒क॒ऽपा॒ल: । च॒र॒ति॒ । वि॒ऽचि॒न्वन् । वि॒द्वान् । भू॒तम् । उ॒त । भव्य॑म् । अ॒स्य॒ ॥८.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते। ते नाकपालश्चरति विचिन्वन्विद्वान्भूतमुत भव्यमस्य ॥
स्वर रहित पद पाठअनन्तम् । विऽततम् । पुरुऽत्रा । अनन्तम् । अन्तऽवत् । च । समन्ते इति सम्ऽअन्ते । ते इति । नाकऽपाल: । चरति । विऽचिन्वन् । विद्वान् । भूतम् । उत । भव्यम् । अस्य ॥८.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(अनन्तम्) अन्तरहित (पुरुत्रा) बहुत प्रकार (विततम्) फैला हुआ [ब्रह्म अर्थात्] (नाकपालः) मोक्षसुख का स्वामी [परमात्मा] (समन्ते) परस्पर सीमायुक्त (ते) उन [दोनों अर्थात्] (अनन्तम्) अन्तरहित [कारण] (च) और (अन्तवत्) अन्तवाले [कार्य जगत्] को (विचिन्वन्) अलग-अलग करता हुआ और (अस्य) इस [ब्रह्माण्ड] का (भूतम्) भूतकाल (उत) और (भव्यम्) भविष्यत् काल को (विद्वान्) जानता हुआ (चरति) विचरता है ॥१२॥
भावार्थ
अनन्त मोक्षस्वरूप परमात्मा कारण कार्यरूप जगत् तथा भूत भविष्यत् और वर्तमान काल को जानता हुआ सदा वर्तमान है ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(अनन्तम्) अन्तरहितम् (विततम्) विस्तृतं ब्रह्म (पुरुत्रा) बहुविधम् (अनन्तम्) अन्तरहितं कारणम् (अन्तवत्) सान्तं कार्यम् (च) (समन्ते) परस्परसीमायुक्ते (ते) द्वे (नाकपालः) मोक्षसुखस्य स्वामी (चरति) गच्छति (विचिन्वन्) पृथक् पृथक् कुर्वन् (विद्वान्) जानन् (भूतम्) गतकालम् (उत) अपि (भव्यम्) अनागतकालम् (अस्य) जगतः ॥
प्रवचन
पदार्थः (अनन्तम्) अन्तरहित (पुरुत्रा) बहुत प्रकार (विततम्) फैला हुआ [ब्रह्म अर्थात्] (नाकपालः) मोक्ष सुख का स्वामी [परमात्मा] (समन्ते) परस्पर सीमा युक्त (ते) उन [दोनों अर्थात्] (अनन्तम्) अन्तरहित [कारण] (च) और (अन्तवत्) अन्त वाले [कार्य जगत्] को (विचिन्वन्) अलग-अलग करता हुआ और (अस्य) इस [ब्रह्माण्ड] का (भूतम्) भूतकाल (उत) और (भव्यम्) भविष्यत् काल को (विद्वान्) जानता हुआ (चरति) विचरता है॥ पण्डित क्षेमकरण
व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
परमात्मा इस संसार में ओत प्रोत है, लोक लोकान्तरों को उत्पन्न कर रहा है, जिसकी सृष्टि का कोई अन्त नहीं पाता, इस पर यदि यह आत्मा परमात्मा का अंश है, तो परमात्मा के बनाए अनुकूल संसार को, अनन्त ब्रह्मांड को क्यों नहीं जान पाता? मुनिवरों! देखो, यह पृथ्वी मण्डल हैं, पृथ्वी मण्डल के ऊपर बुध मण्डल है, बुध मण्डल के ऊपर मङ्गल है, मङ्गल से ऊपर अनेक चक्षणि आदि लोक है। इस विशाल विश्व में नाना सूर्य मण्डल हैं, नाना चन्द्र है, अगस्त मुनि मण्डल, वशिष्ठ मुनि मण्डल, आरुणि मण्डल और नाना मण्डल ध्रुव लोक, बृहस्पति लोक, अचंग लोक, मचंग लोक, भू: भुवः और स्वः आदि लोक लोकान्तर परमात्मा के बनाए हुए है।
मुनिवरों! आदि आचार्यों ऋषियों ने इसमें एक विशेषता बताई है । परमात्मा में अनन्त गुणों में से चार गुण विशेष रुप से हैं। सृष्टि को उत्पन्न करता है, सृष्टि की प्रलय करता है, हमारे पाप पुण्यों के कर्मों का फल देता है, संसार का पालन करता है। ऊपर कहे गुणों वाला परमात्मा होता है। उसी को परमात्मा कहते हैं।
परन्तु परमात्मा की सृष्टि तो अनन्त के सदृश है, वेदों में ऐसा ही कहा है कि उस अनन्त परमात्मा की सृष्टि में तो अनेक सूर्य हैं। वह सूर्य कहाँ कहाँ प्रकाश कर रहे है, यह तो एक दार्शनिक विषय है हम जितना भी आगे बढ़ जाए, परन्तु हमारी बुद्धि विचलित हो जाती है की कैसे महान परमात्मा ने सबकी सब विद्याएं, कैसे वेदों में प्रविष्ट कर दी हैं। यह भी तो साथ साथ परमात्मा ने एक आत्मा के लिए कितनी सुविधाएं दे दी है।
मुनिवरों! आज महानन्द जी प्रश्न कर रहे थे, कि हमने जो असंख्य सूर्य होने को कहा है, यह कौन से वेद का प्रमाण है? कौन ऋषि का इसमें प्रमाण है? इसका उत्तर यह है कि वेदों का स्वाध्याय करो और अपने ज्ञान को बढ़ाकर अपने को श्रेष्ठ मानव बनाओ। तो महानन्द जी कहेंगे कि आपने कौन से वेदों का स्वाध्याय किया है, जो आप उच्चारण कर रहे है? इसका उत्तर यह है कि वेदों में अनेक मन्त्रों में आया है, कौन कौन से मन्त्रों की सूची निर्देश की जाए, अन्य मन्त्रों में भी आया है। यदि आगे फिर कभी समय मिला, तो उनकी पूर्णतया व्याख्या कर देंगे।
इंग्लिश (1)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
The infinite is expanded and expansive manifold, many ways. The infinite and the finite, ultimately, are one, together and the same. The Omniscient Brahma, lord protector of eternal bliss, integrating, disintegrating, re-integrating, gathering and watching the past, present and future of this all, pervades and vitalises the finite and the infinite.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(अनन्तम्) अन्तरहितम् (विततम्) विस्तृतं ब्रह्म (पुरुत्रा) बहुविधम् (अनन्तम्) अन्तरहितं कारणम् (अन्तवत्) सान्तं कार्यम् (च) (समन्ते) परस्परसीमायुक्ते (ते) द्वे (नाकपालः) मोक्षसुखस्य स्वामी (चरति) गच्छति (विचिन्वन्) पृथक् पृथक् कुर्वन् (विद्वान्) जानन् (भूतम्) गतकालम् (उत) अपि (भव्यम्) अनागतकालम् (अस्य) जगतः ॥
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