अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
प्र॒जया॒ स वि क्री॑णीते प॒शुभि॒श्चोप॑ दस्यति। य आ॑र्षे॒येभ्यो॒ याच॑द्भ्यो दे॒वानां॒ गां न दित्स॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजया॑ । स: । वि । क्री॒णी॒ते॒ । प॒शुऽभि॑: । च॒ । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । य: । आ॒र्षे॒येभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । दे॒वाना॑म् । गाम् । न । दित्स॑ति ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजया स वि क्रीणीते पशुभिश्चोप दस्यति। य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजया । स: । वि । क्रीणीते । पशुऽभि: । च । उप । दस्यति । य: । आर्षेयेभ्य: । याचत्ऽभ्य: । देवानाम् । गाम् । न । दित्सति ॥४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह पुरुष (प्रजया) अपने सन्तान [पुत्र पुत्री आदि] के साथ (वि क्रीणीते) बिक जाता है (च) और (पशुभिः) अपने पशुओं [गाय घोड़े आदि] के साथ (उप दस्यति) नष्ट हो जाता है। (यः) जो पुरुष (याचद्भ्यः) माँगते हुए (आर्षेयेभ्यः) ऋषिसन्तानों को (देवानाम्) विजय चाहनेवालों के बीच (गाम्) वेदवाणी (न) नहीं (दित्सति) देना चाहता है ॥२॥
भावार्थ
जो विद्वान् विद्वानों के बीच जिज्ञासुओं को वेदविद्या नहीं देता, वह निर्धन होकर अपने आप और उसके सन्तान पराधीन होकर कष्ट सहते हैं ॥२॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा भाग आगे मन्त्र १२ में आया है ॥
टिप्पणी
२−(प्रजया) स्वसन्तानेन सह (सः) (वि क्रीणीते) परिव्यवेभ्यः क्रियः। पा० १।३।१८। इत्यात्मनेपदम्। विक्रीयते (पशुभिः) गवाश्वादिभिः सह (च) समुच्चये (उप दस्यति) उपदस्यते। उपक्षीयते (यः) (आर्षेयेभ्यः) अ० ११।१।१६। इतश्चानिञः। पा० ४।१।१२२। ऋषि−ढक्। ऋषिसन्तानेभ्यः (याचद्भ्यः) (देवानाम्) विजिगीषूणां मध्ये (गाम्) वेदवाणीम्। गौर्वाङ्नाम−निघ० १।११। (न) (निषेधे) (दित्सति) दातुमिच्छति ॥
विषय
देवों की गौ
पदार्थ
१.प्रभ ने सृष्टि के प्रारम्भ में इस वेदवाणीरूप गौ को 'अग्नि, वाय, आदित्य व अङ्गिरा' इन देवों को प्राप्त कराया, अत: यह वेदधेनु 'देवों की गौ' कहलाती है। इस (देवानां गाम्) = देवधेनु को (यः) = जो (याचभ्य:) = याचना करनेवाले (आर्षेयेभ्य:) = ऋषि सन्तानों के लिए-पवित्राचरण जिज्ञासुओं के लिए (न दित्सति) = नहीं देना चाहता है, (स:) = वह (प्रजया विक्रीणीते) = प्रजा के साथ अपने को बेच डालता है, अर्थात् ऐसा राष्ट्र परतन्त्र हो जाता है (च) = और (पशुभिः उपदस्यति) = वह पशुओं से क्षीण हो जाता है। ऐसे राष्ट्र में गवादि पशु भी उत्तम दूध आदि देनेवाले नहीं रहते।
भावार्थ
जिस राष्ट्र में राजा वेदज्ञान के प्रसार के लिए प्रयत्नशील नहीं होता वह राष्ट्र परतन्त्र और उत्तम पशुओं से रहित हो जाता है।
भाषार्थ
(यः) जो राजा (याचद्भ्यः) याचना करते हुए (आर्षेयेभ्यः) ऋषि सन्तानों के लिये (देवानाम्) दिव्यगुणी ब्राह्मणों की (गाम्) वाणी [की स्वतन्त्रता] को (न दित्सति) नहीं देना चाहता (सः) वह (प्रजया पशुभिः च) प्रजा और पशुओं समेत (विक्रीणीते) अपने-आप को बेच देता है, (च) और (उप दस्यति) अन्यों के समीप दास बन जाता है, या उपक्षीण हो जाता है।
टिप्पणी
[गाम्; गौः वाङ्नाम (निघं० १।१२)। जो राजा ऋषियों की सन्तानों की वाणी पर प्रतिबन्ध लगा देता है, और उन्हें वाणी का स्वातन्त्र्य [Freedom of speech] नहीं देता, वह राज्यच्युत और निर्धन हो कर अपनी सन्तानों तथा पशुओं समेत अपने आप को बेच कर, अन्यों के स्वामित्व में दासवृत्ति से जीवनयापन करता है]।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो पुरुष (याचद्-भ्यः) मांगने वाले ऋषियों के पुत्रों और शिष्यों को (देवानां) देवों के योग्य (गाम्) गौ को (न दित्सति) नहीं प्रदान करना चाहता (सः प्रजया) वह अपनी प्रजा को (विक्रीणीते) बेच खाता है और (पशुभिः च उप दस्यति) और पशुओं से रहित होकर विनष्ट हो जाता है। श्रर्थात् उसकी पशु और प्रजा भी नष्ट हो जाती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
He barters himself away along with his cattle, wealth and even his progeny and people who fails to give the divine cow, Vedic speech, to the seekers and followers of the Rshis. He reduces himself to naught.
Translation
He bargains away his- progeny and becomes exhausted of cattle who is not willing to give the cow of the gods-to the sons of seers that ask for her.
Translation
He who does not desire to give the cow meant for the purpose of the enlightened persons and their forces concerned with Yajna as the acceptors of oblations to the masters of Vedic knowledge and speech desiring and asking for it sells his progeny and suffers loss of his cattle’s.
Translation
He sells his sons, and is destroyed along with his cattle, who does not like to give Yedic speech to the Rishis’ children, longing for success, when they ask for it.
Footnote
(गाम्) वेदवाणीम् । गौर्वांड्ंनाम- निध० 1-11.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(प्रजया) स्वसन्तानेन सह (सः) (वि क्रीणीते) परिव्यवेभ्यः क्रियः। पा० १।३।१८। इत्यात्मनेपदम्। विक्रीयते (पशुभिः) गवाश्वादिभिः सह (च) समुच्चये (उप दस्यति) उपदस्यते। उपक्षीयते (यः) (आर्षेयेभ्यः) अ० ११।१।१६। इतश्चानिञः। पा० ४।१।१२२। ऋषि−ढक्। ऋषिसन्तानेभ्यः (याचद्भ्यः) (देवानाम्) विजिगीषूणां मध्ये (गाम्) वेदवाणीम्। गौर्वाङ्नाम−निघ० १।११। (न) (निषेधे) (दित्सति) दातुमिच्छति ॥
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