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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 44
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
    40

    वि॑लि॒प्त्या बृ॑हस्पते॒ या च॑ सू॒तव॑शा व॒शा। तस्या॒ नाश्नी॑या॒दब्रा॑ह्मणो॒ य आ॒शंसे॑त॒ भूत्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽलि॒प्त्या: । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । या । च॒ । सू॒तऽव॑शा । व॒शा । तस्या॑: । न । अ॒श्नी॒या॒त् । अब्रा॑ह्मण: । य: । आ॒ऽशंसे॑त । भूत्या॑म् ॥४.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विलिप्त्या बृहस्पते या च सूतवशा वशा। तस्या नाश्नीयादब्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽलिप्त्या: । बृहस्पते । या । च । सूतऽवशा । वशा । तस्या: । न । अश्नीयात् । अब्राह्मण: । य: । आऽशंसेत । भूत्याम् ॥४.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (बृहस्पते) हे बड़ी वेदवाणियों के रक्षक [जिज्ञासु] ! (या) जो (च) निश्चय करके (सूतवशा) उत्पन्न जगत् को वश में करनेवाली (वशा) कामनायोग्य [वेदवाणी] है, (तस्याः) उस (विलिप्त्याः) विशेष वृद्धिवाली का (न अश्नीयात्) वह भोग [अनुभव] नहीं कर सकता, (यः) जो (अब्राह्मणः) अब्रह्मचारी [ब्रह्मचर्य न रखनेवाला पुरुष] (भूत्याम्) ऐश्वर्य में (आशंसेत) इच्छा करे” ॥४४॥

    भावार्थ

    जिस वेदवाणी के वश में सब संसार है, उसको वही मनुष्य पाकर प्रभुता कर सकता है, जो पूरा ब्रह्मचारी हो, अन्यथा नहीं। यह गत मन्त्र का उत्तर है ॥४४॥

    टिप्पणी

    ४४−(विलिप्त्याः) म० ४१। विशेषवृद्धियुक्तायाः (बृहस्पते) हे बृहतीनां वेदवाणीनां रक्षक (या) (च) निश्चयेन (सूतवशाः) सूतस्योत्पन्नस्य जगतो वशयित्री (वशा) कमनीया वेदवाणी (तस्याः) (न) निषेधे (अश्नीयात्) भुञ्जीत। अनुभवेत् (यः) (आशंसेत) इच्छेत् (भूत्याम्) ऐश्वर्ये ॥

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    विषय

    नारद द्वारा उत्तर

    पदार्थ

    १. हे (बृहस्पते) = ज्ञानिन् ! (या च वशा) = जो कमनीया वेदवाणी निश्चय से (सूतवशा) = [नियन्ता सूतः] अपना नियमन करनेवाले के वश में होती है, (तस्याः) = उस (विलिप्त्या:) = हमारा विशेष उपचय करनेवाली वेदवाणी का (अब्रह्मण:) = अब्राह्मण वृत्तिवाला, अब्रह्मचारी (न अश्नीयात्) = नहीं उपभोग कर पाता, (यः) = जो (भूत्याम्) = ऐश्वर्य में (आशंसेत) = आशंसा-इच्छा करता है, जिसका जीवनोद्देश्य रुपया-पैसा हो जाता है, वह इस वेदवाणी को प्रास नहीं कर पाता।

    भावार्थ

    वेदवाणी उसे प्राप्त नहीं होती जो ऐश्वर्य की कामनावाला हो जाता है तथा जो आत्मनियन्त्रण की शक्तिवाला नहीं होता।

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    भाषार्थ

    (बृहस्पते) हे बृहती वेदवाणी के रक्षक! (विलिप्त्या) विलिप्ती वेदवाणी के साथ (या च) और जो (सूतवशा, वशा) सूतवशा और वशा वेदवाणी है (तस्याः) उस का (न अश्नीयात्) सेवन न करे, (यः) जोकि (अब्राह्मणः) ब्रह्म और वेद को नहीं जानता, और जो (भूत्याम्) सांसारिक ऐश्वर्य में जीवन विताना (आशंसेत) चाहता है।

    टिप्पणी

    [आशंसेत=आङः शासु इच्छायाम्। भूत्याम्=अथवा भूतिम्। भूति+ड्या+अम् ('सुपां सुलुक" अष्टा ७।१।३९)। अभिप्राय यह कि जो व्यक्ति सांसारिक भोगों में ही रहना चाहता है और जिस में ब्रह्मज्ञान और वेदज्ञान की इच्छा नहीं, उस के लिये उक्त तीन प्रकार की वाणियां व्यर्थ हैं यथा- "यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति" (ऋग्वेद), अर्थात् जो ब्रह्म को नहीं जानता उस को ऋचाओं द्वारा क्या लाभ होना है। विलिप्ती=राग-द्वेष आदि के लेप से रहित होने का उपदेश देने वाली वेदवाणी (योगियों और संन्यासियों के लिये)। सूतवशा=इन्द्रियों को वशीभूत कर के सन्तानोत्पादन का उपदेश देने वाली वेदवाणी (गृहस्थियों के लिये)। वशा= इन्द्रियों को वशीभूत कर के आश्रम-जीवन का उपदेश देने वाली वेदवाणी (ब्रह्मचारियों और वानप्रस्थियों के लिये)। तथा सांसारिक भोगों को चाहने वालों के लिये वह वेदवाणी जिस में कि कृषि, वाणिज्य, गोपालन और कला-कौशल आदि का वर्णन हो। मन्त्र में वेशा का एक रूप "सूतवशा" भी कहा है। जिस ने एक वशा को अर्थात् प्रसूत कर दिया वह "वशा" गौ, बन्ध्या या गर्भघातिनी कैसे कही जा सकती है। अतः वशा का अर्थ गौ नहीं]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (बृहस्पते) बृहस्पते ! (विलिप्तयः) ‘विलिप्ति’ और (या च) जो ‘सूतवशा’ वशा को उत्पन्न करने वाली और (वशा) वशा, (तस्याः) इन तीनों का वह (अब्राह्मण) ब्राह्मण, से अतिरिक्त पुरुष (न अश्नीयात्) भोग न करे (यः) जो (भृत्याम्) सम्पत्ति, समृद्धि की (आशंसेत) आशा करे, चाहे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘विलिप्तया’ (तृ०) ‘तासाम् ना’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    O Brhaspati, master, guardian and promoter of knowledge and freedom for life in existence, the man who is indifferent to Divinity and divine values, though deeply dedicated to mundane prosperity, should not, in fact cannot, value and taste the higher pleasures of Vilipti and Sutavasha Vasha, that is, the knowledge and freedom divinely consecrated but humanly obscured, and that which controls the sensual and worldly desires of the men of passion and appetite.

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    Translation

    The vilipti, O Brhaspati, and the cow- that has given birth to (such) a cow -- of that one a non-Brahman who should hope for prosperity (bhuti), may not partake.

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    Translation

    O Brihaspati (the men of great experience) one who is not Brahman, the master of vedic speech and knowledge and desires power and eminence should not eat the milk product of the cows called Vilipti, Sutvasha (the mother of Vasha) and Vasha.

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    Translation

    O research scholar, the guardian of Vedic knowledge, a man who is not a Brahmchari, and hopes for prosperity, cannot enjoy the beautiful knowledge of the Vedas, which is highly developed, and controls the created world!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(विलिप्त्याः) म० ४१। विशेषवृद्धियुक्तायाः (बृहस्पते) हे बृहतीनां वेदवाणीनां रक्षक (या) (च) निश्चयेन (सूतवशाः) सूतस्योत्पन्नस्य जगतो वशयित्री (वशा) कमनीया वेदवाणी (तस्याः) (न) निषेधे (अश्नीयात्) भुञ्जीत। अनुभवेत् (यः) (आशंसेत) इच्छेत् (भूत्याम्) ऐश्वर्ये ॥

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