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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
    61

    नम॑स्ते अस्तु नारदानु॒ष्ठु वि॒दुषे॑ व॒शा। क॑त॒मासां॑ भी॒मत॑मा॒ यामद॑त्त्वा परा॒भवे॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । ना॒र॒द॒ । अ॒नु॒ष्ठु । वि॒दुषे॑ । व॒शा । क॒त॒मा । आ॒सा॒म्। भी॒मऽत॑मा । याम् । अद॑त्वा । प॒रा॒ऽभवे॑त् ॥४.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते अस्तु नारदानुष्ठु विदुषे वशा। कतमासां भीमतमा यामदत्त्वा पराभवेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । अस्तु । नारद । अनुष्ठु । विदुषे । वशा । कतमा । आसाम्। भीमऽतमा । याम् । अदत्वा । पराऽभवेत् ॥४.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 45
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (नारद) हे नीति बतानेवाले [ऋषि] ! (अनुष्ठु) अनुष्ठान [कर्मारम्भ] (विदुषे) जानते हुए (ते) तुझ को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे। (आसाम्) इन [संसार की शक्तियों] में से (कतमा) कौनसी (वशा) कामनायोग्य शक्ति (भीमतमा) अत्यन्त भयानक है, (याम्) जिस को (अदत्त्वा) न देकर (पराभवेत्) [मनुष्य] हार पावे” ॥४५॥

    भावार्थ

    जिज्ञासु विद्वान् से प्रश्न करे कि संसार के बीच शक्तियों में से वह कौन सी शक्ति है, जिसकी प्रवृत्ति रोकने से मनुष्य गिरकर कष्ट पाता है ॥४५॥

    टिप्पणी

    ४५−(नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (नारद) म० १६। हे नीतिप्रद (अनुष्ठु) अपदुःसुषु स्थः। उ० १।२५। अनु+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−कु। अनुष्ठानम्। कर्मारम्भम् (विदुषे) जानते (वशा) कमनीया शक्तिः (कतमा) बह्वीषु का (आसाम्) वशानाम् (भीमतमा) अतिशयेन भयङ्करा (याम्) (अदत्त्वा) (पराभवेत्) पराजयं प्राप्नुयात् पुरुषः ॥

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    विषय

    कतमा भीमतमा

    पदार्थ

    १. हे (नारद) = नरसम्बन्धी 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले साधक! (ते नमः अस्तु) = तेरे लिए नमस्कार हो। विदुषे ज्ञानी के लिए वशा-यह वेदवाणी अनुष्टु-अनुकूल स्थितिवाली होती है। २. (आसाम्) = इन वेदवाणियों में (कतमा भीमतमा) = कौन-सी अतिशयेन भयंकर है? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि वह भयंकर है (याम्) = जिसको (अदत्वा) = न देकर पराभवेत् पराभूत होता है। जिन वेदवाणियों की प्रेरणा से युवकों के जीवन का निर्माण होता है, जब उन वेदवाणियों को उनके लिए प्राप्त नहीं कराया जाता तब उनके जीवन विकृत होकर सारे परिवार के लिए दुर्गति का कारण बनते हैं। एवं, इन वेदवाणियों में जो (क-तमा) = अत्यन्त आनन्द का कारण होती है, वही न दी जाने पर (भीमतमा) = भयंकर हो जाती है।

    भावार्थ

    हम जीवन की शुद्धि के लिए वेदवाणी को अपनाएँ। यह हमारे जीवनों को आनन्दमय बनाती है। यह वेदवाणी जब आनेवाली सन्तानों को प्रास नहीं कराई जाती, तो हमारे लिए यह भयंकर हो जाती है।

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    भाषार्थ

    (नारद) हे नर-नारियों को शुद्ध करने वाले ! (नमस्ते अस्तु) तुझे नमस्कार हो, (अनुष्ठु) यह अनुरूप स्थिति है कि (वशा) काम्या तथा कान्तिमती वेदवाणी के प्रचार का अधिकार (विदुषे) विद्वान व्यक्ति के लिये है। (आसाम्) इन वेदवाणियों में (कतमा) कौन सी (भीमतमा) सर्वाधिक जयप्रदा है (याम् अदत्त्वा) जिसे न देकर (पराभवेत्) राजन्य पराभव को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    [राजन्य (३२, ३३) यदि भीमतमा अर्थात् विलिप्ती (४१) वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता विद्वान् ब्रह्मवेत्ता को नहीं देता तो वह प्रजा द्वारा पराभव अर्थात् अपमान् को प्राप्त होता है। विलिप्ती वेदवाणी राग-द्वेष आदि के लेप से रहित होने का उपदेश देती है, जिस द्वारा जीवन उत्कृष्ट बनता है। विलेपमार्ग अतिदुर्गम होने से भीमतम है]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (नारद) नारद ! (ते नमः अस्तु) तुझे नमस्कार हो। और (अनुष्ठु) तत्काल ही (विदुषे) वशा को जाने लेने वाले विद्वान को (वशा) ‘वशा’ प्राप्त होनी चाहिये। अच्छा अब यह कहो कि (आसाम) इन उपरोक्त विलिप्ति, सूतवशा और वशा इन तीनों में से (कतमा) कौनसी (भीमतमा) सब से अधिक भयप्रद है (याम्) जिस को (अदत्वा) बिना दिये स्वामी (पराभवेत्) पराभव या अपमान या कष्ट और दरिद्रता को प्राप्त हो जा सकता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘तेस्तु’ (द्वि०) ‘वशाम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Salutations to you, Narada, enlightened sage. It is fair that the freedom to propagate the knowledge of noble and desirable values enshrined in the Vedic literature be given to the educated and the enlightened. Which of these values is the most sublime and awesome without the pursuit and propagation of which adversity is sure to strike and prevail?

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    Translation

    Homage to be thee, O Narada; (be) the cow to him who at once knows it. Which one of them is the most fearful, not having given which, one would perish?

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    Translation

    O Narad (most experienced one) my obeisance to you who has a quick knowledge of cows (Let me know) which of these is the fierce vasha whom withholding for him a man comes to frustration.

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    Translation

    Homage, O wise sage, to thee who knowest how to act quickly. Which of these beautiful forces is most majestic whose withholding brings defeat, humiliation!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४५−(नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (नारद) म० १६। हे नीतिप्रद (अनुष्ठु) अपदुःसुषु स्थः। उ० १।२५। अनु+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−कु। अनुष्ठानम्। कर्मारम्भम् (विदुषे) जानते (वशा) कमनीया शक्तिः (कतमा) बह्वीषु का (आसाम्) वशानाम् (भीमतमा) अतिशयेन भयङ्करा (याम्) (अदत्त्वा) (पराभवेत्) पराजयं प्राप्नुयात् पुरुषः ॥

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