अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
कू॒टया॑स्य॒ सं शी॑र्यन्ते श्लो॒णया॑ का॒टम॑र्दति। ब॒ण्डया॑ दह्यन्ते गृ॒हाः का॒णया॑ दीयते॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठकू॒टया॑ । अ॒स्य॒ । सम् । शी॒र्य॒न्ते॒ । श्लो॒णया॑ । का॒टम् । अ॒र्द॒ति॒ । ब॒ण्डया॑ । द॒ह्य॒न्ते॒ । गृ॒हा: । का॒णया॑ । दी॒य॒ते॒ । स्वम् ॥४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कूटयास्य सं शीर्यन्ते श्लोणया काटमर्दति। बण्डया दह्यन्ते गृहाः काणया दीयते स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठकूटया । अस्य । सम् । शीर्यन्ते । श्लोणया । काटम् । अर्दति । बण्डया । दह्यन्ते । गृहा: । काणया । दीयते । स्वम् ॥४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(कूटया) [वेदवाणी के] नहीं देने से (अस्य) उस पुरुष के (गृहाः) घर (सं शीर्यन्ते) सर्वथा नष्ट किये जाते हैं, और (बण्डया) ढक देने से (दह्यन्ते) जलाये जाते हैं, (श्लोणया) बटोर रखने से (काटम्) अपनी प्रसिद्धता को (अर्दति) वह नष्ट करता है, और (काणया) मूँद रखने से (स्वम्) [उसका] सर्वस्व (दीयते) बट जाता है ॥३॥
भावार्थ
वेदवाणी के उपदेश और प्रचार के विना मनुष्य तनक्षीण, मनमलीन और धनहीन होकर महा कष्ट पाते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(कूटया) कूट दानाभावे−घञ्। टाप्। अदानेन (अस्य) पुरुषस्य (सं शीर्यन्ते) सर्वथा नाश्यन्ते (श्लोणया) श्लोणृ संघाते−घञ्। राशीकरणेन (काटम्) कटी गतौ−घञ्। प्राकट्यम्। प्रसिद्धिम् (अर्दति) नाशयति (बण्डया) बडि विभाजने वेष्टने च−घञ्। वेष्टनेन (दह्यन्ते) भस्मीक्रियन्ते (गृहाः) निवासाः (काणया) कण निमीलने−घञ्। निमीलनेन (दीयते) दीङ् क्षये। नश्यति (स्वम्) सर्वस्वम् ॥
विषय
साङ्ग वेदाध्ययन
पदार्थ
१. (कूटया) = [कूट दानाभावे to abstain from giving] वेदवाणी के न देने से (अस्य संशीयन्ते) = इस राष्ट्र के पुरुष शीर्ण [नष्ट] हो जाते हैं। [कूटा A cow whose horns are broken] [शिक्षा प्राणं तु वेदस्य, मुर्ख व्याकरणं स्मृतम्। निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते] (कूटया) = 'शिक्षा, व्याकरण व निरुक्त' के बिना वेदवाणी से (अस्य सं शीर्यन्ते) = इस राष्ट्र के पुरुष शीर्ण ही होते हैं। (श्लोणया) = [cripple छन्दः पादौ तु वेदस्य 'शिक्षा'] छन्दोरहित अतएव लंगड़ी वेदवाणी से (काटम् अर्दति) = [अर्द गती, कम् well] कुएँ में पड़ता है, अर्थात् वेदवाणी को छन्दों के ज्ञान के साथ ग्रहण करने से ही उसका ठीक भाव अवगत होता है। २. (बण्डया) = [A cow without a tail] [हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते] कल्पमय हाथों से रहित लूली वेदवाणी से गृहाः दान्ते-घर भस्म हो जाते हैं। 'कल्प' अनुष्ठान का प्रतिपादन करते हैं। यदि वेदों को पढ़कर भी तद्विहित यज्ञों का अनुष्ठान न होगा तो घरों का क्या कल्याण होना? (काणया) = [ज्योतिषमयनं चक्षुः, निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते] ज्योतिष के ज्ञान से रहित वेदवाणी से (स्वं दीयते) = ज्ञानधन का विनाश ही होता है [दी क्षये], अर्थात् वेद को ठीक प्रकार से समझने के लिए ज्योतिष [नक्षत्रविद्या] को समझना भी आवश्यक है।
भावार्थ
वेदवाणी को ठीक से समझने के लिए 'शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द व ज्योतिष' इन अङ्गों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है।
भाषार्थ
(कूटया) कूटनीति द्वारा (अस्य) इस क्षत्रिय राजा की प्रजाएं (सं शीर्यन्ते) जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं, (श्लोणया) लंगड़ीनीति के द्वारा (काटम्) काटे गए गढ़े में (अर्दति) दुःख भोगता है। (बण्डया) प्रलोभन की नीति द्वारा (गृहा) गृहवासी (दह्यन्ते) दग्ध हो जाते हैं, (काणया) निमीलन की नीति द्वारा (स्वम्) उस का निजधन (दीयते) क्षीण हो जाता है।
टिप्पणी
[क्षत्रिय राजा यदि ब्रह्मज्ञों को वाणी का स्वातन्त्र्य न दे कर भिन्न-भिन्न नीतियों की चालें चलता है तो उन का जो परिणाम होता है उसे मन्त्र में दर्शाया है। वे नीतियां हैं, (१) कूटनीति अर्थात् झूठ और धोखे की नीति (२) श्लोणानीति, अर्थात् वचन दे कर उसे पूरा न करना, कुछ अंश में दिये वचन को पूरा करना, अवशिष्ट वचन स्थगित कर देना। (३) बण्डानीति१, अर्थात् प्रलोभन की नीति, लालच दिखा कर वाणी स्वातान्त्र्य के आन्दोलन को रोकने का यत्न करना। (४) कानीनीति, अर्थात् आन्दोलन पर पूरा ध्यान ही न देना, आंख मूंद रखना। काणया= कण निमीलने (आंख बन्द रखना)]। [१. बण्डि= बण्टि= fish-hook।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(कूटया) कूट = मिथ्या रूप वाली, बिना सींग की ‘वशा’ से पुरुष के (सं शीर्यन्ते) सब घर और घरबार के लोग चकनाचूर हो जाते हैं। (श्लोणया) लंगड़ी लूली, टूटी फूटी, बिना चरण की अधकचरी से वह देनेवाला स्वयं (काटम्) गढ़े में (अर्दति) गिराता है। (बण्डया) कटी फटी, अंगहीन वाणी से (गृहाः दह्यन्ते) घर जल जाते हैं (काण्या) चक्षुहीन ‘गौ’ अर्थात् निरुक्त व्याकरणादि व्याख्या के बिना वेदवाणी के उपदेश देने से उसका (स्वम्* दीयते) अपना ही धन नष्ट हो जाता है।
टिप्पणी
* ‘काणया। आ। दीयते’ इति ह्विटनिकामितः पदपाठः। ‘काणया जीयते’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
Whether one is an individual or a ruler, if one’s speech, ethics and policy of action, specially in creativity and giving, is illusive, his people are destroyed thereby, if it is lame, he falls into the pit of adversity, if it is divisive, his homes are burnt, and if it is partial and short-sighted, his own identity is lost.
Translation
By a hornless one they are crushed for him; by a lame one he falls into a pit; by a crippled one his/homes are burned by a one-eyed one his posessions are taken away.
Translation
The men of this man who does not give gift of cow perish by a harmless cow. They are pushed in well or pit by lame in firm cow, His houses are burnt by criffled cow. His wealth is destroyed through one-eyed cow.
Translation
They perish who do not preach the Vedas. He who hoards the Vedic knowledge loses renown. Their houses are burnt who withhold the Vedic knowledge. He suffers utter destruction who preaches the Vedic without the support of Nirukta and Grammar.
Footnote
The Vedas should be preached to all. None should be debarred from their benefit. This knowledge should not be kept in store or hoarded in the hearts of the learned. It should not be withheld from anybody on score of caste, colour or creed. Vedic knowledge is blind without Nirukta and Vayakaran. It should always be preached, supported by Nirukta, Nighantu and Grammar.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(कूटया) कूट दानाभावे−घञ्। टाप्। अदानेन (अस्य) पुरुषस्य (सं शीर्यन्ते) सर्वथा नाश्यन्ते (श्लोणया) श्लोणृ संघाते−घञ्। राशीकरणेन (काटम्) कटी गतौ−घञ्। प्राकट्यम्। प्रसिद्धिम् (अर्दति) नाशयति (बण्डया) बडि विभाजने वेष्टने च−घञ्। वेष्टनेन (दह्यन्ते) भस्मीक्रियन्ते (गृहाः) निवासाः (काणया) कण निमीलने−घञ्। निमीलनेन (दीयते) दीङ् क्षये। नश्यति (स्वम्) सर्वस्वम् ॥
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