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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 34
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
    44

    यथाज्यं॒ प्रगृ॑हीतमालु॒म्पेत्स्रु॒चो अ॒ग्नये॑। ए॒वा ह॑ ब्र॒ह्मभ्यो॑ व॒शाम॒ग्नय॒ आ वृ॑श्च॒तेऽद॑दत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । आज्य॑म् । प्रऽगृ॑हीतम् । आ॒ऽलु॒म्पेत्‌ । स्रु॒च: । अ॒ग्नये॑ । ए॒व । ह॒ । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । व॒शाम् । अ॒ग्नये॑ । आ। वृ॒श्च॒ते॒ । अद॑दत् ॥४.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाज्यं प्रगृहीतमालुम्पेत्स्रुचो अग्नये। एवा ह ब्रह्मभ्यो वशामग्नय आ वृश्चतेऽददत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । आज्यम् । प्रऽगृहीतम् । आऽलुम्पेत्‌ । स्रुच: । अग्नये । एव । ह । ब्रह्मऽभ्य: । वशाम् । अग्नये । आ। वृश्चते । अददत् ॥४.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (प्रगृहीतम्) फैला कर लिया गया (आज्यम्) घी (स्रुचः) स्रुचा [चमचा] से (अग्नये) अग्नि को (आलुम्पेत्) छोड़ दिया जावे। (एव ह) वैसे ही (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारियों को (वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (अददत्) न देता हुआ पुरुष (अग्नये) अग्नि [सन्ताप] पाने के लिये (आ वृश्चते) छिन्न-भिन्न हो जाता है ॥३४॥

    भावार्थ

    जैसे प्रज्वलित हवन अग्नि में छोड़ा हुआ घी शीघ्र भस्म हो जाता है, वैसे ही वेदविद्या के रोकने से संसार की हानि करके मनुष्य क्लेश में पड़कर नष्ट हो जाता है ॥३४॥

    टिप्पणी

    ३४−(यथा) येन प्रकारेण (आज्यम्) घृतम् (प्रगृहीतम्) प्रकर्षेण धृतम् (आलुम्पेत्) लुप्लृ छेदने विनाशने च। समन्ताद् नश्येत् (स्रुचः) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ−चिक्। यज्ञपात्रविशेषात्। चमसात् (अग्नये) पावकाय (एव) तथा (ह) हि (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (वशाम्) वेदवाणीम् (अग्नये) सन्तापाय। क्लेशाय (आ) समन्तात् (वृश्चते) वृश्च्यते। छिद्यते (अददत्) अप्रयच्छन् पुरुषः ॥

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    विषय

    ब्रह्मयज्ञ

    पदार्थ

    १. (यथा) = जिस प्रकार (प्रगृहीतम्) = चम्मच में सम्यक् लिया हुआ (आग्यम्) = घृत (स्त्रुच:) = चम्मच से (अग्नये) = अग्नि के लिए (आलुम्पेत) = छिन्न हो जाए, अर्थात् अग्नि में न डाला जाए (एवा ह) = इसप्रकार ही ब्रह्मभ्यः ब्रह्मचारियों के लिए (वशाम् अददत्) = कमनीया वेदवाणी को न देता हुआ (अग्नये आवश्चते) = अग्नि के लिए प्रगतिदेव के लिए छिन्न हो जाता है, अर्थात् जिस राष्ट्र में विद्यार्थियों के लिए आचार्यों द्वारा वेदज्ञान उसी प्रकार नहीं दिया जाता जैसे कि कोई चम्मच से घृत को अग्नि के लिए न दे, तो वह राष्ट्र उन्नत नहीं हो पाता।

    भावार्थ

    'राष्ट्र में आचार्यों द्वारा विद्यार्थिरूप अग्नि में वेदज्ञानरूप घृत की आहुति पड़ती ही रहे' तभी राष्ट्र उन्नत होता है।

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (अग्नये) अग्नि के लिये (प्रगृहीतम्) ग्रहण किये गए (आज्यम्) घी को (स्रुचः) यज्ञिय चम्मच से (आलुम्पेत्) कोई छीन ले, तो वह (अग्नये) अग्नि=कर्म के लिये (आ वृश्चते) अपने सम्बन्ध को काट लेता है, (एवा) इसी प्रकार (ह) ही (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मवेत्ताओं के लिये (वशाम्) वेदवाणी को (अददत्) न देता हुआ राजा, [ब्रह्मज्ञों से अपने सम्बन्ध को काट लेता है]।

    टिप्पणी

    [अग्नये = अग्निकर्म कर्त्तु स्वात्मानमावृश्चते]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (स्रुचः) स्त्रुवा में निमित्त (प्रगृहीतम्) लिये हुए (आज्यम्) घृत को (आलुम्पेत्) अग्नि में न डालकर वापिस ले ले इस प्रकार वह (अग्नये आवृश्वते) अग्नि के प्रति अपराध करता है उसी प्रकार (ब्रह्मभ्यः) विद्वान् ब्रह्मज्ञानियों को (वशाम्) वशा का (अददत्) दान न करता हुआ (ब्रह्मभ्यः आ वृश्चते) ब्रह्मज्ञानियों के प्रति अपराध करता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यदाज्यं प्रतिजग्राह’ (च०) ‘अग्नये वृश्चतेव’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Just as the person who takes away the ghrta held in the ladle meant for the fire alienates himself from the fire, so does the person withholding Vasha from the rightful seekers of knowledge and divinity alienate him¬ self as a misappropriator in relation to the light of life.

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    Translation

    As one might snatch from the spoon sacrificial butter held forth for the fire, so he who gives not the -cow (vasa) (to the priests) falls idar the wrath of Agni.

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    Translation

    As a man (Yajamana) instead of offering the oblation of ghee held in spoon assigned for Agni makes it fall outside and consequently becomes in fringer of the right of Agni, so the man who dies not give cow to Brahmanas in fringes the rights owned by them.

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    Translation

    As molten butter, held at length, drops down to fire from the spoon, so falls into suffering and is destroyed, he who imparts not Vedic knowledge to the Brahmcharis.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(यथा) येन प्रकारेण (आज्यम्) घृतम् (प्रगृहीतम्) प्रकर्षेण धृतम् (आलुम्पेत्) लुप्लृ छेदने विनाशने च। समन्ताद् नश्येत् (स्रुचः) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ−चिक्। यज्ञपात्रविशेषात्। चमसात् (अग्नये) पावकाय (एव) तथा (ह) हि (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (वशाम्) वेदवाणीम् (अग्नये) सन्तापाय। क्लेशाय (आ) समन्तात् (वृश्चते) वृश्च्यते। छिद्यते (अददत्) अप्रयच्छन् पुरुषः ॥

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