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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 33
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
    34

    व॒शा मा॒ता रा॑ज॒न्यस्य॒ तथा॒ संभू॑तमग्र॒शः। तस्या॑ आहु॒रन॑र्पणं॒ यद्ब्र॒ह्मभ्यः॑ प्रदी॒यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒शा । मा॒ता । रा॒ज॒न्य᳡स्य । तथा॑ । सम्ऽभू॑तम् । अ॒ग्र॒ऽश: । तस्या॑: । आ॒हु॒: । अन॑र्पणम् । यत् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । प्र॒ऽदी॒यते॑ ॥४.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वशा माता राजन्यस्य तथा संभूतमग्रशः। तस्या आहुरनर्पणं यद्ब्रह्मभ्यः प्रदीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वशा । माता । राजन्यस्य । तथा । सम्ऽभूतम् । अग्रऽश: । तस्या: । आहु: । अनर्पणम् । यत् । ब्रह्मऽभ्य: । प्रऽदीयते ॥४.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (राजन्यस्य) ऐश्वर्यवान् [राजा] की (माता) माता [मान करनेवाली] है, (तथा) वैसा ही (अग्रशः) पहिले से (संभूतम्) ठहरा हुआ [कर्म] है। (तस्याः) उस [वेदवाणी] का (अनर्पणम्) अत्याग (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं, (यत्) जब कि (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारियों को (प्रदीयते) वह दे दी जाती है ॥३३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का नियम है कि विद्या के दान से राजा का मान बढ़ता है और विद्या भी अधिक-अधिक प्रचार से अधिक-अधिक बढ़ती है ॥३३॥

    टिप्पणी

    ३३−(वशा) कमनीया वेदवाणी (माता) मानकर्त्री (राजन्यस्य) म० ३२। ऐश्वर्यवतः क्षत्रियस्य (तथा) तेन प्रकारेण (सम्भूतम्) समर्थितं परमेश्वरेण (अग्रशः) आदौ (तस्याः) वेदवाण्याः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अनर्पणम्) (अत्यागम्) सदावर्धनम् (यत्) यदा (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (प्रदीयते) प्रकर्षेण दीयते सा ॥

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    विषय

    वशा माता व राष्ट्र

    पदार्थ

    १. (वशा) = यह वेदवाणी ही (राजन्यस्य) = एक क्षत्रिय की (माता) = निर्मात्री है। जैसे एक बालक माता से पोषित होता है और माता के निर्देश में चलकर ही उन्नत होता है, उसी प्राकर एक राजा इस वेदमाता से पोषित होता है और उसे वेदमाता के निर्देश के अनुसार ही चलना चाहिए। (तथा अग्रश: संभूतम्) = वैसा ही नियम प्रारम्भ में प्रभु द्वारा बना दिया गया है। ब्रह्म क्षत्रमध्नोति' ब्रह्म ही क्षत्र का संवर्धन करता है। २. (तस्याः) = उस वशा माता का यह (अनर्पणम् आहुः) = अत्याग कहाता है, (यत्) = जो (ब्रह्माभ्यः) = ज्ञान पिपासुओं के लिए (प्रदीयते) = इसका दान किया जाता है। राष्ट्र में आचार्यों द्वारा ब्रह्मचारियों के लिए सदा इस वेद का ज्ञान दिया जाता रहे', यही राष्ट्र द्वारा वेदवाणी का अत्याग होता है। ऐसा होने पर एक राष्ट्र उन्नत होता है।

    भावार्थ

    राष्ट्र का निर्माण वेदमाता द्वारा होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्रभु ने यही व्यवस्था की कि राजा ब्राह्मण के निर्देशानुसार राष्ट्र-व्यवस्था करे। 'सृष्टि में आचार्य ब्रह्मचारियों के लिए वेदज्ञान देते रहें', यही राष्ट्र द्वारा बेदमाता का अत्याग है।

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    भाषार्थ

    (वशा) वेदवाणी (राजन्यस्य) राजा की (माता) माता है, (तथा) ऐसा (अग्रशः) पहिले से (संभूतम्) निश्चित हुआ है। (तस्याः) उस के सम्बन्ध में दान को (अनर्पणम्, आहुः) "यह समर्पण नहीं हैं", ऐसा कहते हैं, (यद्) जबकि (व्रह्मभ्यः) वेदज्ञों को (प्रदीयते) वशा अर्थात् वेदवाणी प्रदान की जाती हैं।

    टिप्पणी

    [समर्पण का अभिप्राय है, उस वस्तु का प्रदान, जिस पर कि दाता का स्वामित्व है। वशा अर्थात् वेदवाणी राजन्य की माता हैं। माता पर राजन्य का स्वामित्व नहीं। अपितु राजन्य का कर्तव्य हैं माता की सेवा करना। राजन्य की माता का समर्पण तो राजन्य का पिता ही निज जामाता को कर सकता है। वेदमाता का समर्पण करने वाला केवल परमेश्वर है, जोकि वेदमाता का पिता है। इस मन्त्र द्वारा यह दर्शाया है कि राजन्य यदि ब्रह्मवेत्ताओं को वेदवाणी प्रदान करता है तो इस द्वारा वह निज कर्त्तव्य का ही पालन करता है]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    पूर्वोक्त वशा का स्पष्टीकरण भा०- (वशा) ‘वशा’ (राजन्यस्य) राजा की (माता) माता अर्थात् उसे बनाने और उत्पन्न करने वाली है। (तथा) उसी प्रकार (अग्रशः संभूतम्) पहले भी था कि (यद्) यदि वह ‘वशा’ (ब्रह्मभ्यः) विद्वान् ब्राह्मणों को (प्रदीयते) प्रदान कर दी जाय तो इसको भी विद्वान् लोग (तस्याः) उस वशा का (अनर्पणम्) अनर्पण, अप्रदान ही (आहुः) कहते हैं।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘तस्यादु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Vasha, the Vedic Voice of divine knowledge, is the mother of rules, It has been so since the beginning. When it is freely given to the seekers of knowledge and divinity in the social system, this giving is not called a gift, because giving knowledge and freedom of speech to the Brahmanas is not charity, it is the fulfilment of the ruler’s obligation.

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    Translation

    The cow is mother of the noble; so came it into being in the beginning; they call it a non-abandonment of her that she is presented to the priests

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    Translation

    Vasha is the mother of Rajanya, the man of warrior community and this a decided priority. The cow to be given to Brahmanas, if given to them is not treated to be a gift, say the learned men (as it is indeed the property of Brahmanas).

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    Translation

    Beautiful Vedic knowledge is the mother of a prosperous king God hath so ordained from times immemorial. The learned say, it should never be forsaken, but constantly developed by being bestowed on the Brahmcharis.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३३−(वशा) कमनीया वेदवाणी (माता) मानकर्त्री (राजन्यस्य) म० ३२। ऐश्वर्यवतः क्षत्रियस्य (तथा) तेन प्रकारेण (सम्भूतम्) समर्थितं परमेश्वरेण (अग्रशः) आदौ (तस्याः) वेदवाण्याः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अनर्पणम्) (अत्यागम्) सदावर्धनम् (यत्) यदा (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (प्रदीयते) प्रकर्षेण दीयते सा ॥

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