अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 39
म॒हदे॒षाव॑ तपति॒ चर॑न्ती॒ गोषु॒ गौरपि॑। अथो॑ ह॒ गोप॑तये व॒शाद॑दुषे वि॒षं दु॑हे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हत् । ए॒षा । अव॑ । त॒प॒ति॒ । चर॑न्ती । गोषु॑ । गौ: । अपि॑ । अथो॒ इति॑ । ह॒ । गोऽप॑तये । व॒शा। अद॑दुषे । वि॒षम्। दु॒हे॒ ॥४.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
महदेषाव तपति चरन्ती गोषु गौरपि। अथो ह गोपतये वशाददुषे विषं दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठमहत् । एषा । अव । तपति । चरन्ती । गोषु । गौ: । अपि । अथो इति । ह । गोऽपतये । वशा। अददुषे । विषम्। दुहे ॥४.३९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(एषा) यह (गौः) प्राप्तियोग्य [वेदवाणी] (गोषु) सब भूमि प्रदेशों में (अपि) ही (चरन्ती) विचरती हुई (महत्) बहुत (अव) निश्चय करके (तपति) प्रताप [ऐश्वर्य]वाली होती है। (अथो ह) और कि (वशा) वशा [वह कामनायोग्य वेदवाणी] (अददुषे) [उसके] न देनेवाले (गोपतये) भूपति [राजा] के लिये (विषम्) विष [महाकष्ट] (दुहे) पूर्ण करती है ॥३९॥
भावार्थ
वेदवाणी की प्रवृत्ति होने से संसार में ऐश्वर्य बढ़ता है, और जो दुष्ट राजा उसे रोकता है, वह नष्ट हो जाता है ॥३९॥
टिप्पणी
३९−(महत्) बृहत् (एषा) वर्तमाना (अव) निश्चयेन (तपति) तप ऐश्वर्ये। ईष्टे। प्रतापिनी भवति (चरन्ती) विचरन्ती (गोषु) भूमिप्रदेशेषु (गौः) प्राप्तव्या वेदवाणी (अपि) (अथो ह) पुनश्च (गोपतये) भूपालाय। राज्ञे (वशा) (अददुषे) ददातेः क्वसु। अदत्तवते (विषम्) सरलम् (दुहे) दुग्धे। प्रपूरयति ॥
विषय
विषं दुहे
पदार्थ
१. (एषा) = यह (गौ:) = वेदवाणीरूपी गौ (गोषु) = ज्ञानरश्मियों में (चरन्ती अपि) = विचरती हुई भी (महत् अवतपति) = खूब ही दीप्त होती है। यह वेदज्ञान ज्ञानों में भी उत्तम ज्ञान है, यह सब ज्ञानों में देदीप्यमान होता है। २. (अथो ह) = ऐसी दीप्त होती हुई भी (वशा) = यह वेदवाणी (अददुषे गोपतये) = वेदज्ञान को औरों के लिए न देनेवाले गोपति [ज्ञानस्वामी] के लिए (विषं दुहे) = विष का दोहन करती है।
भावार्थ
वेदज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है। यह ज्ञानों में भी ज्ञानरूप से दीस होता है, परन्तु जो गोपति बनकर औरों के लिए इस ज्ञान को नहीं देता, उसके लिए यह वेदवाणी विष का दोहन करती है।
भाषार्थ
(गोषु) स्तोतृ-याज्ञिकों में (चरन्ती) केवल विचरती हुई (एषा) यह वेदवाणी (महत्) बहुत (अव तपति) सन्तप्तहृदया सी रहती है। (गौः अपि) वाणी होती हुई भी (वशा) वेदवाणी (अददुषे) प्रचार की स्वतन्त्रता जिस ने नहीं दी उस (गोपतये) पृथिवीपति के लिये (विषम् दुहै) मानो विषरूपी दूध देती है।
टिप्पणी
[गोषु; गौः स्तोतॄनाम (निघं० ३।१६)। गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। वशा अर्थात् वेदवाणी का यज्ञों में प्रयोग (३५)। वर्णन कवितामय है]।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(गोषु) गौओं में (गौः अपि) सामान्य गौ होकर भी (चरन्ती) विचरती हुई (एषा) वह वशा (महत् तपति) बड़ी पीड़ा अनुभव करती है (अथो) और (अददुषे) प्रदान न करने हारे (गोपतये) अपने पालक गोपति राजा को वह (विषं दुहे) विष दुहा करती है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘ततोगोप’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
Like a frustrated cow moving among cows, Vasha, divine knowledge and freedom of speech, scotched yet self-assertive among scholarly sages and intellectuals in a society or dominion, heats up intensely within, and that way it produces but poison for the custodian of life and culture who refuses to grant freedom to the seekers of food for progress and enlightenment.
Translation
She sends down great heat, going about a cow among kine; further, to the master, who has not given her the cow milks poison.
Translation
The cow even moving in cows feel a great burning in to her and therefore yields poision for her master who does not give her away.
Translation
Vedic knowledge preached in all parts of the world attains to fame and dignity. It brings misery and suffering on the king who restricts its spread.
Footnote
It is the duty of the king to propagate Vedic knowledge, otherwise his country can not progress, and he will suffer thereby.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(महत्) बृहत् (एषा) वर्तमाना (अव) निश्चयेन (तपति) तप ऐश्वर्ये। ईष्टे। प्रतापिनी भवति (चरन्ती) विचरन्ती (गोषु) भूमिप्रदेशेषु (गौः) प्राप्तव्या वेदवाणी (अपि) (अथो ह) पुनश्च (गोपतये) भूपालाय। राज्ञे (वशा) (अददुषे) ददातेः क्वसु। अदत्तवते (विषम्) सरलम् (दुहे) दुग्धे। प्रपूरयति ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal