अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
यत्ते॒ शिरो॒ यत्ते॒ मुखं॒ यौ कर्णौ॒ ये च॑ ते॒ हनू॑। आ॒मिक्षां॑ दुह्रतां दा॒त्रे क्षी॒रं स॒र्पिरथो॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । शिर॑: । यत् । ते॒ । मुख॑म् । यौ । कर्णौ॑ । ये इति॑ । च॒ । ते॒ । हनू॒ इति॑ । अ॒मिक्षा॑म् । दु॒ह्र॒ता॒म् । दा॒त्रे । क्षी॒रम् । स॒र्पि:। अथो॒ इति॑ । मधु॑ ॥९.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते शिरो यत्ते मुखं यौ कर्णौ ये च ते हनू। आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । शिर: । यत् । ते । मुखम् । यौ । कर्णौ । ये इति । च । ते । हनू इति । अमिक्षाम् । दुह्रताम् । दात्रे । क्षीरम् । सर्पि:। अथो इति । मधु ॥९.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(यत् ते शिरः) जो तेरा शिर (यत् ते मुखम्) जो तेरा मुख, (यौ कर्णौ) जो दो कान, (यौ च) और जो (ते) तेरे (हनूः) दो जबाड़े है [वे सब] आमिक्षा, क्षीर [दूध] घृत और मधु (दात्रे) दाता के लिये (दुह्रताम्) दोहन करें प्रदान करें।
टिप्पणी -
[आमिक्षा = प्रतप्त दूध में दधि सींचने पर जो स्थूल भाग अर्थात् पनीर पृथक् होता है वह आमिक्षा है। आमिक्षा = आ+मिषु (सेचने, भ्वादिः)। मन्त्र १३ से २४ तक, शतौदना के भिन्न-भिन्न अवयवों से आमिक्षा आदि की प्राप्ति वर्णित हुई है, इस का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि सब अङ्गों वाली शतौदना का दूध उपयोगी होता है, असम्पूर्णाङ्गी तथा विकृताङ्गो का अनुपादेय है। शतौदना द्वारा पारमेश्वरी माता का ग्रहण करने पर शिर, मुख आदि का क्या अभिप्राय सम्भव है, इसका वर्णन यथामन्त्र साथ-साथ दर्शाया जायेगा। अर्थ दर्शाने से पूर्व दो बातों को ध्यान में रखना चाहिये। (१) मारी गई, काटी गई, और अग्नि पर भूनी गई और दिव में हुई शतौदना के जब अङ्ग ही न रहे (देखो मन्त्र ७,४,११) तव बह दिविषद्, अन्तरिक्षसद् तथा भूमिष्ठ देवों को आमिक्षा आदि कैसे दे सकती है। वैदिक दर्शनानुसार वेद में मन्त्ररचना बुद्धि पूर्वक हुई है, यथा "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" तब मन्त्रार्थ बुद्धिसंगत ही होने चाहिये, बुद्धि विपरीत नहीं। विशेषतया तब जब कि वेदों को परमेश्वरीय रचना माना जाता है। (२) मन्त्र १३-१४ में प्रतीयमान गोप्राणी तथा उसके सिरः आदि अवयव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के अवयवों के रूप में भी कथित हुए हैं। अथर्व० काण्ड ९, सूक्त १२, (७) मन्त्र २४ में "एतद्वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम्" द्वारा ब्रह्माण्ड को गोरूप कहा है, तथा इस सूक्त में गौ के कतिपय अवयवों को भी के ब्रह्माण्ड के अवयवों के रूप में वर्णित किया है। जहां-जहां सुक्त में इस प्रकार का वर्णन हुआ है, उन-उन का निर्देश, मन्त्रार्थो के साथ दर्शा दिया जायेगा। तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि १३-२४ मन्त्रों में जो "मधु" का वर्णन हुआ है वह शतौदना-गोप्राणी द्वारा अप्राप्य है। उसकी प्राप्ति भी परमेश्वर के नियमानुसार पारमेश्वरी माता द्वारा ही होती है। मन्त्र १३; शिरः= इन्द्रः। हनूः= द्यौरुत्तरहनुः, पृथिव्यधरहनुः (अथर्व० ९।१२।१,२)। मुखम्=अग्निः (यजु० ३१।१२)। कर्णौ=दिशः, "दिशः श्रोत्रात्" (यजु० ३१।१३)।]