अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 26
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - पञ्चपदा बृहत्यनुष्टुबुष्णिग्गर्भा जगती
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
उ॒लूख॑ले॒ मुस॑ले॒ यश्च॒ चर्म॑णि॒ यो वा॒ शूर्पे॑ तण्डु॒लः कणः॑। यं वा॒ वातो॑ मात॒रिश्वा॒ पव॑मानो म॒माथा॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒लूख॑ले । मुस॑ले । य: । च॒ । चर्म॑णि । य: । वा॒ । शूर्पे॑ । त॒ण्डु॒ल: । कण॑: । यम् । वा॒ । वात॑: । मा॒त॒रिश्वा॑ । पव॑मान: । म॒माथ॑ । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् । कृ॒णो॒तु॒ ॥९.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
उलूखले मुसले यश्च चर्मणि यो वा शूर्पे तण्डुलः कणः। यं वा वातो मातरिश्वा पवमानो ममाथाग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठउलूखले । मुसले । य: । च । चर्मणि । य: । वा । शूर्पे । तण्डुल: । कण: । यम् । वा । वात: । मातरिश्वा । पवमान: । ममाथ । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् । कृणोतु ॥९.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(उलूखले) ओखली में, (मुसले) मुसल में,(यः च) और जो (चर्मणि) मृगछाल पर (वा) या (यः) जो (शूर्पे) छाज में, (तण्डुलः कणः) तण्डुल और तण्डुल के कण अर्थात् टूटे-तण्डुल है, (वा) या (यम्) जिसे कि (पवमानः) बहती हुई (मातरिश्वा वातः) अन्तरिक्ष में गति करती हुई तथा फैली हुई वायु ने (ममाथ) मथ डाला है, (तत्) उस सब को (होता अग्नि) दाता अग्नि (सुहुतम्) उत्तम-आहुत (कृणोतु) करे।
टिप्पणी -
[मृगछाल पर ओखली को रखकर, मुसल द्वारा धान्य को कूटकर, नण्डुल प्राप्त किया जाता है। इस कूटे धान्य को छाज द्वारा, वहती वायु में छान कर, तुष पृथक् करके तण्डुल और तण्डुल कण प्राप्त किये जाते हैं। ये यज्ञार्थ होते हैं। इन्हें अग्नि पर पका कर, पके चावलों की आहुतियां यज्ञियाग्नि में, तथा अध्यात्मगुरुओं की जाठराग्नि में दी जाती है। इधर-उधर बिखरे तण्डुलों और कणों को एकत्र कर इन्हें पकाया जाना चाहिए। यज्ञार्थ-गृहीत धान्यों का काई तण्डुल या कण व्यर्थ नहीं होना चाहिए। इन सबको अग्नि पकाकर सुहुत करती है। मानो यह भात अग्नि ने होता अर्थात् दाता बनकर प्रदान किया है। होता=हु दानादनयोः। आदाने चेत्येके (जुहोत्यादिः)। इस परिपक्व भात में से यज्ञियाग्नि में आहुतियां दे कर,शेष द्वारा अध्यात्म-गुरुओं, का अन्न प्रदान द्वारा सत्कार करने का निर्देश मन्त्र में हुआ है।]