अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 12
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
ये दे॒वा दि॑वि॒षदो॑ अन्तरिक्ष॒सद॑श्च॒ ये ये चे॒मे भूम्या॒मधि॑। तेभ्य॒स्त्वं धु॑क्ष्व सर्व॒दा क्षी॒रं स॒र्पिरथो॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽसद॑: । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽसद॑: । च॒ । ये । ये । च॒ । इ॒मे । भूम्या॑म् । अधि॑ । तेभ्य॑: । त्वम् । धु॒क्ष्व॒ । स॒र्व॒दा । क्षी॒रम् । स॒र्पि: । अथो॒ इति॑ । मधु॑ ॥९.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवा दिविषदो अन्तरिक्षसदश्च ये ये चेमे भूम्यामधि। तेभ्यस्त्वं धुक्ष्व सर्वदा क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥
स्वर रहित पद पाठये । देवा: । दिविऽसद: । अन्तरिक्षऽसद: । च । ये । ये । च । इमे । भूम्याम् । अधि । तेभ्य: । त्वम् । धुक्ष्व । सर्वदा । क्षीरम् । सर्पि: । अथो इति । मधु ॥९.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(ये) जो (देवाः) देव (दिविषदः) द्युलोक में स्थित हैं (ये च) और जो (अन्तरिक्षसदः) अन्तरिक्ष में स्थित है (ये च) और जो (इमे) ये (भूम्याम् अधि) भूमि में हैं, (तेभ्यः) उन [सब] के लिये (त्वम्) तू [हे पारमेश्वरी मातः!] (सर्वदा) सदा (क्षीरम्) दूध (सर्पिः) घृत, (अथो) और (मधु) मधु (धुक्ष्व) दोहन कर, प्रदान कर ।
टिप्पणी -
[याज्ञिक पद्धति के अनुसार शतौदना-गौ का शमन अर्थात् हनन और पकाना हो जाने पर (मन्त्र ७), जब वह शरीर से न रही, तो वह त्रिलोकस्थ देवों के लिये क्षीर आदि कैसे दोहन कर सकती है। मधु के दो अर्थ हैं, (१) जल यथा "मधु उदकनाम" (निघं० १।१२) तथा (२) प्रसिद्ध शहद। मधु क्षीरम् का विशेषण नहीं, क्योंकि "अथो" द्वारा मधु का स्वतन्त्र वर्णन हुआ है। अतः मन्त्र में चतुष्पाद् प्राणि गौ का वर्णन नहीं। यह न जल देती है, न शहद। अतः मन्त्र में पारमेश्वरी माता का वर्णन है। परमेश्वरी माता सर्वशक्तिमती है। उसने तो समग्र सृष्टि को प्रदान किया हुआ है। जल भी वही प्रदान करती हैं और शहद भी]।