अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
घृ॒तं प्रो॒क्षन्ती॑ सु॒भगा॑ दे॒वी दे॒वान्ग॑मिष्यति। प॒क्तार॑मघ्न्ये॒ मा हिं॑सी॒र्दिवं॒ प्रेहि॑ शतौदने ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तम् । प्र॒ऽउ॒क्षन्ती॑ । सु॒ऽभगा॑ । दे॒वी । दे॒वान् । ग॒मि॒ष्य॒ति॒ । प॒क्तार॑म् । अ॒घ्न्ये॒ । मा । हिं॒सी॒: । दिव॑म् । प्र । इ॒हि॒ । श॒त॒ऽओ॒द॒ने॒ ॥९.११॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतं प्रोक्षन्ती सुभगा देवी देवान्गमिष्यति। पक्तारमघ्न्ये मा हिंसीर्दिवं प्रेहि शतौदने ॥
स्वर रहित पद पाठघृतम् । प्रऽउक्षन्ती । सुऽभगा । देवी । देवान् । गमिष्यति । पक्तारम् । अघ्न्ये । मा । हिंसी: । दिवम् । प्र । इहि । शतऽओदने ॥९.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(घृतम्) घृत आदि पदार्थों का सिञ्चन अर्थात् प्रदान करती हुई (सुभगा) उत्तम भगों वाली (देवी) पारमेश्वरी मातारूपी देवता (देवान्) दिव्यगुणों वाले व्यक्तियों को (गमिष्यति) प्राप्त होगी। (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये अत्याज्ये मातः ! (पक्तारम्) ध्यानाभ्यास द्वारा तेरा परिपाक करने वाले को (मा हिंसीः) तू निज आश्रय से वञ्चित न कर। (शतौदने) हे नानाविध अन्नों को देने वाली ! (दिवम् प्रेहि) उपासक के मस्तिष्क में तू प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[पारमेश्वरी माता शतौदना है, सैकड़ों प्रकार के ओदन आादि भोज्य पदार्थ देती है, और घृतादि सात्विक पदार्थ भी देती है। वह सुभगा है, श्रेष्ठ भगों वाली है। भग ६ होते हैं, यथा "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा"॥ ये ६ भग पारमेश्वरी माता के हैं। वह देवों अर्थात् दिव्यगुणियों को ही प्राप्त होती है, अपात्रों और कुपात्रों को नहीं, अर्थात् उन्हें ही प्राप्त होती है जो कि ध्यानाभ्यास द्वारा उसका परिपाक१ करते हैं। परमेश्वर की छाया ही अमृत है "यस्य च्छायामृतम्", तथा उसकी छाया से वञ्चित रहना यह मृत्यु है "यस्य मृत्यु" (यजु० २५।१३)। यह मृत्यु है "हिंसा"। यथा "मा हिंसी" (मन्त्र ११)। दिवम् = मूर्धा या शिरः अर्थात् मस्तिष्क तथा मस्तिष्कस्थ सहस्रार चक्र]। [१. जैसे कि "परिपक्व बुद्धिः" पद में परिपाक का अर्थ "अग्नि-पर-पकाना" नहीं।]