अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 14
सूक्त - रक्षोहाः
देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
यस्त॑ ऊ॒रू वि॒हर॑त्यन्त॒रा दम्प॑ती॒ शये॑। योनिं॒ यो अ॒न्तरा॒रेढि तमि॒तो ना॑शयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । ऊ॒रू इति॑ । वि॒ऽहर॑ति । अ॒न्त॒रा । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । शये॑ ॥ योनि॑म् । य: । अ॒न्त: । आ॒ऽरेल्हि॑ । तम् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥९६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त ऊरू विहरत्यन्तरा दम्पती शये। योनिं यो अन्तरारेढि तमितो नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । ऊरू इति । विऽहरति । अन्तरा । दम्पती इति दम्ऽपती । शये ॥ योनिम् । य: । अन्त: । आऽरेल्हि । तम् । इत: । नाशयामसि ॥९६.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
हे स्त्री! (यः) जो रोगोत्पादक कृमि (ते) तेरी (ऊरू) दो जांघों के (अन्तरा) बीच अर्थात् मध्य में विद्यमान योनि में (विहरति) विचरता है, अथवा जो रोगोत्पादक कृमि (दम्पती) पति-पत्नी के सहवास (अन्तरा) में (आ शये) आकर मानो कुछ काल तक सोया सा रहता है, और कालान्तर में जिसके लक्षण प्रकट होते हैं, या (यः) जो रोगोत्पादक कृमि (अन्तरा) तेरे गर्भाशय में घुसा हुआ (आरेल्हि) तेरे गर्भ को चट कर देता है, (तम्) उस कृमि को (इतः) इन उपर्युक्त ओषधियों द्वारा (नाशयामसि) हम चिकित्सक विनष्ट करते हैं।
टिप्पणी -
[सिफ़लिस या गनोरिया आदि रोग या तो पत्नी में हो, या पति के सहवास द्वारा पति से प्राप्त हो—उसके विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है।]