अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 4
अनु॑स्पष्टो भवत्ये॒षो अ॑स्य॒ यो अ॑स्मै रे॒वान्न सु॒नोति॒ सोम॑म्। निर॑र॒त्नौ म॒घवा॒ तं द॑धाति ब्रह्म॒द्विषो॑ ह॒न्त्यना॑नुदिष्टः ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ऽस्पष्ट: । भ॒व॒ति॒ । ए॒ष: । अ॒स्य॒ । य: । अ॒स्मै॒ । रे॒वान् । न । सु॒नोति॑ । सोम॑म् ॥ नि: । अ॒र॒त्नौ । म॒घऽवा॑ । तम् । द॒धा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑: । ह॒न्ति॒ । अन॑नुऽदिष्ट: ॥९६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुस्पष्टो भवत्येषो अस्य यो अस्मै रेवान्न सुनोति सोमम्। निररत्नौ मघवा तं दधाति ब्रह्मद्विषो हन्त्यनानुदिष्टः ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽस्पष्ट: । भवति । एष: । अस्य । य: । अस्मै । रेवान् । न । सुनोति । सोमम् ॥ नि: । अरत्नौ । मघऽवा । तम् । दधाति । ब्रह्मऽद्विष: । हन्ति । अननुऽदिष्ट: ॥९६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(यः) जो (रेवान्) धनिक व्यक्ति, (अस्मै) इस परमेश्वर के लिए, (सोमम्) भक्तिरस (न सुनोति) नहीं रखता, अर्थात् भक्ति नहीं करता, (एषः) यह परमेश्वर (अस्य) इस भक्तिहीन के लिए (अनुस्पष्टः) प्रकट नहीं (भवति) होता; (मघवा) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (तम्) उसे (निररत्नौ) अपने से कुछ दूर ही (दधाति) रखता है; (ब्रह्मद्विषः) और जो ब्रह्मद्वेषी हैं उसका, (अनानुदिष्टः) विना किसी द्वारा निर्दिष्ट किये (हन्ति) स्वयं हनन करता है।
टिप्पणी -
[व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं—भक्त, भक्तिविहीन, और भक्तिद्वेषी। मन्त्र में भक्तिविहीन और भक्तिद्वेषियों का वर्णन है। गरीब व्यक्ति, जो कि आजीविका के लिए दिनभर लगा रहता है, और थकामान्दा रात को सो जाता है, वह फिर भी क्षमा योग्य है। परन्तु धनिक व्यक्ति, जिसे कि आजीविकार्जन की चिन्ता नहीं, वह भी यदि भक्ति के लिए तत्पर नहीं होता, तो परमेश्वर उसके प्रति प्रकट नहीं होता, उसे अपने से कुछ दूर ही रखता है। परन्तु जो भक्तिद्वेषी हैं, और अनाचार में लिप्त हैं, उनका विनाश तो उनके कर्मानुसार स्वतःसिद्ध है। अनुस्पष्टः=अन+उ+स्पष्ट। निररत्नौ=अरत्नि पैमाना है—कोहनी से लेकर खुले हाथ की छोटी अंगुली तक। अभिप्राय है “कुछ दूर” नकि बहुत दूर। ऐसे धनिक व्यक्ति, किसी भी चोट पर, भक्ति-परायण हो सकते हैं। परन्तु जो भक्ति के विद्वेषी हैं, ऐसे व्यक्ति आचार-विहीन होकर नष्ट ही हो जाते हैं उनका भविष्य अन्धकारमय होता है। अनानुदिष्टः=अन्+आ+अनुदिष्टः। अनुस्पष्टः=अन्+उ+स्पष्टः; अथवा अनु (हीन)+स्पष्टः=स्पष्टता से विहीन।]