अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 24
सूक्त - प्रचेताः
देवता - दुःस्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
अपे॑हि मनसस्प॒तेऽप॑ क्राम प॒रश्च॑र। प॒रो निरृ॑त्या॒ आ च॑क्ष्व बहु॒धा जीव॑तो॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒हि॒ । म॒न॒स॒: । प॒ते॒ । अप॑ । क्रा॒म॒ । प॒र: । च॒र ॥ प॒र: । नि:ऽऋ॑त्यै । आ । च॒क्ष्व॒ । ब॒हु॒धा । जीव॑त: । मन॑:॥९६.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेहि मनसस्पतेऽप क्राम परश्चर। परो निरृत्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मनः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इहि । मनस: । पते । अप । क्राम । पर: । चर ॥ पर: । नि:ऽऋत्यै । आ । चक्ष्व । बहुधा । जीवत: । मन:॥९६.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
हे रोगी! तू दृढ-संकल्प से (आ चक्ष्व) कह कि (मनसस्पते) हे मन के स्वामी बने हुए पाप! तू (अपेहि) जुदा हो जा, (अप क्राम) हट जा, (परः चर) परे हो जा। (निऋर्त्यै) पाप-जन्य कष्ट के प्रति भी (आ चक्ष्व) तू दृढ़-संकल्प से कह कि (परः) तू भी परे हो जा; यद्यपि (जीवतः) जीवित मनुष्य का (मनः) मन (बहुधा) बहुत प्रकार का होता है।
टिप्पणी -
[चिकित्सक रोगी से कहता है कि यद्यपि जीवित मनुष्य का मन बहुत प्रकार का होता है, वह कभी पाप की ओर झुकता है और कभी पुण्य की ओर, तब भी हे रोगी! तू मनोनिष्ठ पाप के साथ लड़, इस आसुरी प्रवृत्ति को हटाने के लिए दृढ़ संकल्प का आश्रय ले, मानसिक पाप की जड़ उखेड़ने के लिए पाप को मानसिक भूमि से उखाड़ फैंक। इसी प्रकार पापजन्य कष्टों और रोगों को दूर करने के लिए भी तू कटिबद्ध हो जा। उनके प्रति भी तू उपर्युक्त दृढ़ भावना को अपने में जागरित कर। इस प्रकार तू मानसिक पापों और तज्जन्य रोगों से छुटकारा पा लेगा। वैदिक दृष्टि से रोग प्रायः करके परिणाम हैं—पापों के, विशेषतया मानसिक-पापों के, दुश्चिन्ताओं के। मानसिक-पापों के प्रति दृढ़-संकल्प की भावना का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र में विशेषरूप से हुआ है। यथा— “परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये॥” अथर्व০ ६.४५.१॥ होम्योपेथिक चिकित्सा में रोगों की चिकित्सा के लिए, रोगी की मानसिक अवस्थाओं पर भी विशेष बल दिया है। क्योंकि मानसिक-अवस्था, भिन्न-भिन्न रोगों के उत्पादन में, एक विशेष कारण है। वर्त्तमान सूक्त में यक्ष्मा का विस्तृत वर्णन कर, और २३ वें मन्त्र में “कश्यप के वीबर्ह” के पश्चात् ही जो २४ वें मन्त्र में “मनसस्पति” या “मनस्पाप” का वर्णन किया है, और उसे और उससे प्रकट होनेवाले कष्टों और रोगों के हटाने में जो “दृढ़-संकल्प” का वर्णन किया है, इससे स्वभावतः यह सूचित किया है कि “कश्यप का वीबर्ह” दृढ़-संकल्प है, जो कि कश्यप=पश्यक अर्थात् सर्वद्रष्टा परमात्मा की परम कृपा द्वारा प्राप्त होता है।]