अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - विराट्पथ्याबृहती
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
मा ग॒ताना॒मा दी॑धीथा॒ ये नय॑न्ति परा॒वत॑म्। आ रो॑ह॒ तम॑सो॒ ज्योति॒रेह्या ते॒ हस्तौ॑ रभामहे ॥
स्वर सहित पद पाठमा । ग॒ताना॑म् । आ । दी॒धी॒था॒: । ये । नय॑न्ति । प॒रा॒ऽवत॑म् । आ । रो॒ह॒ । तम॑स: । ज्योति॑: । आ । इ॒हि॒ । आ । ते॒ । हस्तौ॑ । र॒भा॒म॒हे॒ ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मा गतानामा दीधीथा ये नयन्ति परावतम्। आ रोह तमसो ज्योतिरेह्या ते हस्तौ रभामहे ॥
स्वर रहित पद पाठमा । गतानाम् । आ । दीधीथा: । ये । नयन्ति । पराऽवतम् । आ । रोह । तमस: । ज्योति: । आ । इहि । आ । ते । हस्तौ । रभामहे ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(गतानाम्) गुजरे हुओं का (मा) न (आ दीधीथाः) सदा ध्यान अर्थात् चिन्तन किया कर, (ये) जो कि (परावतम्) कर्तव्यपथ से परे (नयन्ति) ले जाते हैं, पराङ् मुख कर देते हैं। (आ रोह) तु आरोहण कर (तमसः) तमस् से (ज्योतिः) ज्योति पर (आ इहि) तू आ (ते) तेरे (हस्तौ) दो हाथों को (आ रभामहे) हम पूर्णतया सहारा देते हैं।
टिप्पणी -
[गुजरों का सदा ध्यान करते रहना, यह तमोगुण का परिणाम है, सत्त्वगुण ज्योतिरूप है। तू तमोगुण का परित्याग कर सत्त्वगुण की ओर आरोहण कर। तू इस आश्रम में [एहि], हम आश्रमवासी सदा तेरे सहायक हैं]।