अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
मा त्वा॑ ज॒म्भः संह॑नु॒र्मा तमो॑ विद॒न्मा जि॒ह्वा ब॒र्हिः प्र॑म॒युः क॒था स्याः॑। उत्त्वा॑दि॒त्या वस॑वो भर॒न्तूदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । ज॒म्भ: । सम्ऽह॑नु: । मा । तम॑: । वि॒द॒त् । मा । जि॒ह्वा । आ । ब॒र्हि: । प्र॒ऽम॒यु: । क॒था । स्या॒: । उत् । त्वा॒ । आ॒दि॒त्या: । वस॑व: । भ॒र॒न्तु॒ । उत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्व॒स्तये॑ ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा जम्भः संहनुर्मा तमो विदन्मा जिह्वा बर्हिः प्रमयुः कथा स्याः। उत्त्वादित्या वसवो भरन्तूदिन्द्राग्नी स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । जम्भ: । सम्ऽहनु: । मा । तम: । विदत् । मा । जिह्वा । आ । बर्हि: । प्रऽमयु: । कथा । स्या: । उत् । त्वा । आदित्या: । वसव: । भरन्तु । उत् । इन्द्राग्नी इति । स्वस्तये ॥१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(जम्भः) दाढ़ (संहनु) परस्पर मिलकर (त्वा) तेरा हनन (मा) न करे, (तमः) तम (मा विदत्) तुझे न प्राप्त हो, (जिह्वा) तेरी वाणी (बर्हिः) किसी की हिंसा (मा) न करे, (प्रमयुः) हिंसा करने वाला (कथा) किस प्रकार (स्याः) तू हो सकता है ? (आदित्याः वसवः) आदित्य और वसु कोटि के आचार्य (त्वा) तेरा (उद्भरन्तु) उद्धार करें (इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि (स्वस्तये) तेरे कल्याण के लिये हों।
टिप्पणी -
[संहनुः = सम् (मेल) + हनुः (जबड़ा)। हिंस्र प्राणी के जम्भ अर्थात् दाढ़ें ऐसी न हों कि उसके दो जबड़ों परस्पर मिल जांय। काटना तभी सम्भव होता है जब कि हिंस्र के मुख के ऊपर और नीचे के दो जबड़े मिल जाँय। इसके द्वारा यह कहा गया है कि सांप आदि हिंस्र प्राणी तुझे न काटें, और तेरा हनन न करें। हनुः= हन्यतेऽनेनेति हनुः कपोलावयवः (उणा० १।१०, दयानन्द)। विषैले प्राणी द्वारा काटने पर मृत्यु भी सम्भव है और मूर्च्छा भी। तुझे तम अर्थात् मूर्च्छान्धकार न प्राप्त हो, इसे "तमो मा विदत् " द्वारा सूचित किया है। जिह्वा का अर्थ है वाणी, वाक् "जिह्वा वाङ्नाम " (निघं० १।११) और बर्हिः का अर्थ है काटने वाली। बर्ह हिंसायाम् (चुरादिः, भ्वादिः), अर्थात् तेरी वाणी दूसरों को काटने वाली अर्थात् कटु न हो। जब उपनीत ब्रह्मचारी वाणी द्वारा भी किसी की हिंसा न करेगा, तो उसने शरीर द्वारा तो हिंसा किसी प्रकार भी करना सम्भव नहीं। "प्रमयुः" अर्थात् वह ब्रह्मचारी किसी प्रकार हिंसा करने वाला नहीं हो सकता। प्रमयुः= प्र + मीङ, मीञ् हिंसायाम् (दिवादिः, क्र्यादिः) + उः (औणादिक प्रत्ययः)। इन्द्रः = सम्राट् “इन्द्रश्च सम्राट् (यजु० ८।३७) ; अग्निः= अग्रणीर्भवति (निरुक्त) प्रकरणानुसार अग्निः= अग्रणी प्रधानमन्त्री। अभिप्राय यह है कि राष्ट्रावस्था ऐसी हो कि सभी अधिकारी ब्रह्मचारियों के कल्याण की व्यवस्था करें]।