अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
रक्ष॑न्तु त्वा॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्ता रक्ष॑तु त्वा मनु॒ष्या॒ यमि॒न्धते॑। वै॑श्वान॒रो र॑क्षतु जा॒तवे॑दा दि॒व्यस्त्वा॒ मा प्र धा॑ग्वि॒द्युता॑ स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठरक्ष॑न्तु । त्वा॒ । अ॒ग्नय॑: । ये । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । रक्ष॑तु । त्वा॒ । म॒नुष्या᳡: । यम् । इ॒न्धते॑ । वै॒श्वा॒न॒र: । र॒क्ष॒तु॒ । जा॒तऽवे॑दा: । दि॒व्य: । त्वा॒ । मा । प्र । धा॒क् । वि॒ऽद्युता॑ । स॒ह ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षन्तु त्वाग्नयो ये अप्स्वन्ता रक्षतु त्वा मनुष्या यमिन्धते। वैश्वानरो रक्षतु जातवेदा दिव्यस्त्वा मा प्र धाग्विद्युता सह ॥
स्वर रहित पद पाठरक्षन्तु । त्वा । अग्नय: । ये । अप्ऽसु । अन्त: । रक्षतु । त्वा । मनुष्या: । यम् । इन्धते । वैश्वानर: । रक्षतु । जातऽवेदा: । दिव्य: । त्वा । मा । प्र । धाक् । विऽद्युता । सह ॥१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(ये अग्नयः) जो अग्नियां (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर हैं वे (त्वा रक्षन्तु) तेरी रक्षा करें, (यम्) जिसे (मनुष्याः इन्धते) मनुष्य प्रदीप्त करते हैं [वह अग्नि] (त्वा रक्षतु) तेरी रक्षा करे। (वैश्वानरः) सब नर-नारियों का हितकारी (जातवेदाः) परमेश्वर (रक्षतु) तेरी रक्षा करे, (विद्यता सह) विद्युत् के साथ (दिव्यः) द्युलोकस्थ [सूर्याग्नि] (त्वा) तुझे (मा प्रधाक्) दग्ध न करे।
टिप्पणी -
[भिन्न-भिन्न स्थानों के जलों में अग्नियां होती हैं। यथा “अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशंभुवम्" (अथर्व० १।६।२) में जलों में सब औषधों की, और सब रोगों को शान्त करने वाली अग्नि की सत्ता कही है। जलचिकित्सा द्वारा पुरुष की रक्षा होती है। मनुष्य पाकाग्नि को, तथा अग्निहोत्र आदि यज्ञिय अग्नियों को प्रदीप्त करते हैं। ये भी रक्षक हैं। वैश्वानर-अग्नि भी सब की रक्षा करती है। जातवेदाः= जातप्रज्ञानः (निरुक्त ७।५।१९)। दिव्य अग्नि= सूर्य। तथा विद्युत् है। मेघीय-विद्युत्। अर्थात् निवासगृह ऐसे होने चाहिये जिन में सूर्य का ताप, संतापकारी न हो, और जिन्हें मेघीय-विद्युत्प्रपात नष्ट न कर सके]।