अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
मा ते॒ मन॒स्तत्र॑ गा॒न्मा ति॒रो भू॒न्मा जी॒वेभ्यः॒ प्र म॑दो॒ मानु॑ गाः पि॒तॄन्। विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु त्वे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठमा । ते॒ । मन॑: । तत्र॑ । गा॒त् । मा । ति॒र: । भू॒त् । मा । जी॒वेभ्य॑: । प्र । म॒द॒: । मा । अनु॑ । गा॒: । पि॒तृ॒न् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒भि । र॒क्ष॒न्तु॒ । त्वा॒ । इ॒ह ॥१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
मा ते मनस्तत्र गान्मा तिरो भून्मा जीवेभ्यः प्र मदो मानु गाः पितॄन्। विश्वे देवा अभि रक्षन्तु त्वेह ॥
स्वर रहित पद पाठमा । ते । मन: । तत्र । गात् । मा । तिर: । भूत् । मा । जीवेभ्य: । प्र । मद: । मा । अनु । गा: । पितृन् । विश्वे । देवा: । अभि । रक्षन्तु । त्वा । इह ॥१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(ते) तेरा (मनः) मन (तत्र) परलोक की ओर (मा गात्) न जाय, (मा तिरः) न तिरस्कृत या तिरोभूत (भूत्) हो, (मा जीवेभ्यः प्रमदः) न प्राणियों की सेवा में तू प्रमाद कर, (पितॄन्) [मृत] पितरों का (मा अनुगाः) अनुगामी न बन। (विश्वे देवाः) सब देवकोटि के आचार्य (त्वा) तुझे (इह) इस आश्रम में (अभि रक्षन्तु) सब प्रकार से सुरक्षित करें।
टिप्पणी -
[मन्त्रों का विनियोग उपनयन संस्कार निमित्त हुआ है (मन्त्र १)। उपनयन का अर्थ है "अपने समीप लाना" (उप=समीप + नयन= लाना)। आचार्य माणवक को, उपनयन विधि द्वारा अपने आश्रम में ले आता है। "विश्वे देवाः" का अर्थ इसलिये आचार्य किया है। आश्रम के सभी आचार्य देवकोटि के होने चाहिये]। अथवा [इस आश्रम में रहकर तेरा मन निज माता-पिता के घर की ओर न जाता रहे, न आश्रम में रहकर तेरा मन टेढ़ो चालों वाला हो, न माता-पिता आदि की ही तू निरन्तर चिन्ता करता रहे]।