अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
मा त्वा॑ क्र॒व्याद॒भि मं॑स्ता॒रात्संक॑सुकाच्चर॒। रक्ष॑तु त्वा॒ द्यौ रक्ष॑तु पृ॑थि॒वी सूर्य॑श्च त्वा॒ रक्ष॑तां च॒न्द्रमा॑श्च। अ॒न्तरि॑क्षं रक्षतु देवहे॒त्याः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । अ॒भि । मं॒स्त॒ । आ॒रात् । सम्ऽक॑सुकात् । च॒र॒ । रक्ष॑तु । त्वा॒ । द्यौ: । रक्ष॑तु । त्वा । द्यौ: । रक्ष॑तु । पृ॒थि॒वी । सूर्य॑: । च॒ । त्वा॒ । रक्ष॑ताम् । च॒न्द्रमा॑: । च॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । र॒क्ष॒तु॒ । दे॒व॒ऽहे॒त्या: ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा क्रव्यादभि मंस्तारात्संकसुकाच्चर। रक्षतु त्वा द्यौ रक्षतु पृथिवी सूर्यश्च त्वा रक्षतां चन्द्रमाश्च। अन्तरिक्षं रक्षतु देवहेत्याः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । क्रव्यऽअत् । अभि । मंस्त । आरात् । सम्ऽकसुकात् । चर । रक्षतु । त्वा । द्यौ: । रक्षतु । त्वा । द्यौ: । रक्षतु । पृथिवी । सूर्य: । च । त्वा । रक्षताम् । चन्द्रमा: । च । अन्तरिक्षम् । रक्षतु । देवऽहेत्या: ॥१.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(क्रव्याद) कच्चामांस खाने वाली अग्नि (त्वा) तुझे (मा अभिमंस्त) न अपनाए, (संकसुकात्) दुर्जन से (आरात्) दूर (चर) विचर, उसका संग न कर। (द्यौः) द्युलोक (त्वा रक्षतु) तेरी रक्षा करे, (पृथिवी रक्षतु) पृथिवी रक्षा करे, (सूर्यः च, चन्द्रमाः च) सूर्य और चन्द्रमा (त्वा) तेरी (रक्षताम्) रक्षा करे (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षस्थ वायु (रक्षतु) रक्षा करे (देवत्याः) इन्द्रियों की मार से।
टिप्पणी -
[क्रव्याद्= क्रव्य (कच्चामांस) + अद् (भक्षणे)। शवाग्नि अल्पावस्था में मृतदेह के कच्चे मांस का भक्षण करती है। जीवनचर्या इस प्रकार की होनी चाहिये कि व्यक्ति १०० वर्षों से पूर्व न मरे। १०० वर्षों की आयु के आसपास देह जीर्ण हो जाता है, मानो पक जाता है, कच्चा नहीं रहता। संकसुक का अर्थ है, दुर्जन (उणा० २।३० पर दयानन्द तथा भट्टोजी दीक्षित)। दुर्जन का संग त्याज्य है। द्युलोक "स्वः और नाक" आदि लोकों की प्राप्ति द्वारा तेरी रक्षा करे, पृथिवी आवास और अन्न द्वारा रक्षा करे। सूर्य ताप, प्रकाश और वर्षा द्वारा रक्षा करे, चन्द्रमा शीतल प्रकाश द्वारा रक्षा करे। अन्तरिक्ष अर्थात् तत्स्थ स्वच्छ तथा संचारी वायु द्वारा तेरी इन्द्रियों को शुद्ध कर अपवित्र इन्द्रियों की मार से तुझे बचाए, इस प्रकार तेरी रक्षा करे। मन्त्र में उपनीत पुरुष के रक्षासाधनों का निर्देश किया है। देवाः= इन्द्रियाणि (यजु० ४०।४)]।