अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
सु॑विज्ञा॒नं चि॑कि॒तुषे॒ जना॑य॒ सच्चास॑च्च॒ वच॑सी पस्पृधाते। तस्यो॒र्यत्स॒त्यं य॑त॒रदृजी॑य॒स्तदित्सोमो॑ऽवति॒ हन्त्यास॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽवि॒ज्ञा॒नम् । चि॒कि॒तुषे॑ । जना॑य । सत् । च॒ । अस॑त् । च॒ । वच॑सी॒ इति॑ । प॒स्पृ॒धा॒ते॒ इति॑ । तयो॑: । यत् । स॒त्यम् । य॒त॒रत् । ऋजी॑य: । तत् । इत् । सोम॑: । अ॒व॒ति॒ । हन्ति॑ । अस॑त् ॥४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते। तस्योर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽविज्ञानम् । चिकितुषे । जनाय । सत् । च । असत् । च । वचसी इति । पस्पृधाते इति । तयो: । यत् । सत्यम् । यतरत् । ऋजीय: । तत् । इत् । सोम: । अवति । हन्ति । असत् ॥४.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(चिकितुषे, जनाय) ज्ञानी जन के लिये (सुविज्ञानम्) सुगमता से ज्ञेय है कि (सत च, असत् च वचसी) सद्वचन [सत्यवचन] और असद् वचन [असत्यवचन] (पस्पृधाते) परस्पर स्पर्धा करते हैं। (तयोः) उन दोनों वचनों में (यत्) जो (सत्यम्) सत्य है, (यतरत्) जो कि (ऋजीयः) अपेक्षया अधिक ऋजु है, (तत् इत्) उस अधिक ऋजु की (सोमः) सोम (अवति) रक्षा करता है, और (असत्) असत् [असत्य] का (आ हन्ति) पूर्णतया हनन करता है ।
टिप्पणी -
[मन्त्र (८) में अनृत वचनों का कथन हुआ है। अनृत वचनों की पहचान के लिये मन्त्र (१२) में अनृत और सत्य की पहचान का वर्णन हुआ है। ज्ञानी जन सुगमता से जान लेता है। "सत्" वह वस्तु है जिसकी वस्तुतः सत्ता है; उसे "सत्य" कहा है। और "असत्" वह है जिसकी वस्तुतः सत्ता नहीं; उसे असत्य कहा है, क्योंकि असत् को सत्ता कल्पित होती है, वस्तुतः सत्ता नहीं होती। इन दोनों में "सत्य" अधिक "ऋजु" होता है, सीधे मार्ग वाला होता है, और "अनृत" कुटिल अर्थात् टेढ़े मार्ग का होता है। सत्य के कथन के लिये कल्पित बातें नहीं बनानी होतीं, परन्तु असत्य के कथन के लिये कई कल्पित बातों का मिश्रण करना पड़ता है। इसलिये सत्य का मार्ग ऋजु है, और असत्य का मार्ग अनृजु है। राष्ट्र या साम्राज्य प्रकरण में सोम है सेनाध्यक्ष, जिससे कि शासन का वर्णन सूक्त (४) में हो रहा है। वह सेनाध्यक्ष, प्रजोन्नति की दृष्टि से सत्यवादी की तो रक्षा करता है, और असत्यवादी का पूर्णतया हनन। इस प्रकार सत्य की रक्षा और असत्य का हनन हो जाता है। ज्ञानीजन जब आत्मनिरीक्षण करता है तो वह अनुभव कर लेता है कि मैं जो कथन कर रहा हूं, वह सत्य है, या असत्य। लाभ और हानि की दृष्टि से सत्यवचन और असत्यवचन में परस्पर स्पर्धा होती रहती है, यह सर्वसाधारण अनुभूतियों का विषय है]।