अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
प्र व॑र्तय दि॒वोऽश्मा॑नमिन्द्र॒ सोम॑शितं मघव॒न्त्सं शि॑शाधि। प्रा॒क्तो अ॑पा॒क्तो अ॑ध॒रादु॑द॒क्तो॒भि ज॑हि र॒क्षसः॒ पर्व॑तेन ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । व॒र्त॒य॒ । दि॒व: । अश्मा॑नम् । इ॒न्द्र॒ । सोम॑ऽशितम् । म॒घ॒ऽव॒न् । सम् । शि॒शा॒धि॒ । प्रा॒क्त: । अ॒पा॒क्त: । अ॒ध॒रात् । उ॒द॒क्त: । अ॒भि । ज॒हि॒ । र॒क्षस॑: । पर्व॑तेन ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वर्तय दिवोऽश्मानमिन्द्र सोमशितं मघवन्त्सं शिशाधि। प्राक्तो अपाक्तो अधरादुदक्तोभि जहि रक्षसः पर्वतेन ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वर्तय । दिव: । अश्मानम् । इन्द्र । सोमऽशितम् । मघऽवन् । सम् । शिशाधि । प्राक्त: । अपाक्त: । अधरात् । उदक्त: । अभि । जहि । रक्षस: । पर्वतेन ॥४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (दिवः) द्युलोक से (अश्मानम्) पत्थरों को (प्रवर्तय) लुढ़काओ, अर्थात् फैंको, (सोमशितम्) जो कि सेनाध्यक्ष द्वारा तीक्ष्ण किये गये हैं, (मघवन्) हे ऐश्वर्यवान् इन्द्र! (सं शिशाधि) उन्हें सम्यक्तया और तीक्ष्ण करा। (प्राक्तः) पूर्व से, (अपाक्तः) पश्चिम से (अधरात्) दक्षिण से, (उदक्तः) उत्तर से (पर्वतेन) पर्वतसदृश सुदृढ़ आयुधों के समूह द्वारा (रक्षसः) राक्षस कृत्यों वालों का (अभि) साक्षात (जहि) हनन कर।
टिप्पणी -
[यदि राक्षस "वयोभूत्वा" (मन्त्र १८) अन्तरिक्ष से प्रहार करें, तो विमानों द्वारा अन्तरिक्ष से भी ऊपर जाकर, द्युलोक से उन पर प्रहार करने का विधान हुआ है। मन्त्र में "अश्मा" द्वारा तीक्ष्ण आयुध अभिप्रेत है, पत्थर नहीं, और पर्वत द्वारा सुदृढ़ आयुधों का समूह अभिप्रेत है। तभी "शितम् और सं शिशाधि" पद सार्थक हो सकते हैं। समग्र सूक्त में सोम पद सेनाध्यक्षार्थं है। पर्वतेन=पर्ववता वज्रेण (सायण)। अश्मानम्= अश निलक्षणं वज्रम् (सायण)]