अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
मा नो॒ रक्षो॑ अ॒भि न॑ड्यातु॒माव॒दपो॑च्छन्तु मिथु॒ना ये कि॑मी॒दिनः॑। पृ॑थि॒वी नः॒ पार्थि॑वात्पा॒त्वंह॑सो॒ऽन्तरि॑क्षं दि॒व्यात्पा॑त्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । न॒: । रक्ष॑: । अ॒भि॒ । न॒ट् । या॒तु॒ऽमाव॑त् । अप॑ । उ॒च्छ॒न्तु॒ । मि॒थु॒ना । ये । कि॒मी॒दिन॑: । पृ॒थि॒वी । न॒: । पार्थि॑वात् । पा॒तु॒ । अंह॑स: । अ॒न्तरि॑क्षम् । दि॒व्यात् । पा॒तु॒ । अ॒स्मान् ॥४.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो रक्षो अभि नड्यातुमावदपोच्छन्तु मिथुना ये किमीदिनः। पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोऽन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । न: । रक्ष: । अभि । नट् । यातुऽमावत् । अप । उच्छन्तु । मिथुना । ये । किमीदिन: । पृथिवी । न: । पार्थिवात् । पातु । अंहस: । अन्तरिक्षम् । दिव्यात् । पातु । अस्मान् ॥४.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(नः) हमें (यातुमावद्) यातना देने वाले (रक्षः) राक्षस स्वभाव वाला व्यक्ति [शत्रु] (ना) न (अभिनद्) प्राप्त हो, (ये) जो (किमीदिनः) अब क्या हो रहा है, यह क्या है, इस प्रकार प्रश्नों द्वारा भेद लेने वाले (मिथुना) स्त्री-पुरुषरूप राक्षस हैं, वे (अपोच्छन्तु) अपगत हो जाय [हमारे राष्ट्र से]। ताकि (पृथिवी) पृथिवी (नः) हमें (पार्थिवात्) पार्थिव पदार्थों के [अभाव से होने वाले] (अंहसः) कष्ट से (पातु) रक्षित करे, और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (अस्मान्) हमें (दिव्यात्) दिव्य पदार्थों के [अभाव से होने वाले] कष्ट से (पातु) रक्षित करे।
टिप्पणी -
[अभिनट् =अभि + नश् (व्याप्तिकर्मा,' निघं २।१८)। अपोच्छन्तु= अप + उछी विवासे (भ्वादिः)। किमीदिनः (निरुक्त ६।३।१२)। अंहसः = अंहतिश्च अंहश्य अंहुश्च हन्तेः (४।४।२५; पदसंख्या ५७)। मृत्यु या मृत्युसदृश कष्ट। राक्षस उत्पात द्वारा कष्टोत्पादक होते हैं। वे हमारे प्रश्नों [पार्थिवात्], तथा प्राणवायु [अन्तरिक्ष] को दुषित भी कर देते हैं। उनकी सत्ता कष्टदायक और मृत्युकारक भी हो जाती है। राक्षसों के न रहने से पृथिवी पार्थिव अन्न प्रदान कर, तथा अन्तरिक्ष दिव्य-प्राणवायुं देकर हमारी रक्षा करते हैं। यातुमावत्= यातु (यातना) + मां (ज्ञानम्) +वत् (मतुप्); मा= ज्ञानम् यथा मा, प्रभा प्रमाणम्। अर्थात् यातना विधिविज्ञ]।