अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
यदि॑ वा॒हमनृ॑तदेवो॒ अस्मि॒ मोघं॑ वा दे॒वाँ अ॑प्यू॒हे अ॑ग्ने। किम॒स्मभ्यं॑ जातवेदो हृणीषे द्रोघ॒वाच॑स्ते निरृ॒थं स॑चन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । वा॒ । अ॒हम् । अनृ॑तऽदेव: । अस्मि॑ । मोघ॑म् । वा॒ । दे॒वान् । अ॒पि॒ऽऊ॒हे । अ॒ग्ने॒ । किम् । अ॒स्मभ्य॑म् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । हृ॒णाी॒षे॒ । द्रो॒घ॒ऽवाच॑: । ते॒ । नि॒:ऽऋ॒थम् । स॒च॒न्ता॒म् ॥४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि वाहमनृतदेवो अस्मि मोघं वा देवाँ अप्यूहे अग्ने। किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निरृथं सचन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । वा । अहम् । अनृतऽदेव: । अस्मि । मोघम् । वा । देवान् । अपिऽऊहे । अग्ने । किम् । अस्मभ्यम् । जातऽवेद: । हृणाीषे । द्रोघऽवाच: । ते । नि:ऽऋथम् । सचन्ताम् ॥४.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (यदि वा) यदि (अनृतदेवः अहं अस्मि) अमृत को देव मानने वाला मैं हूं, (वा) अथवा (मोघम्) व्यर्थ में (देवान्) विजिगीषु सैनिकों या राष्ट्रव्यवहार सम्बन्धी अधिकारियों को (अपि ऊहे) मैंने अदित किया है, हिंसित किया है तो (हृणीषे) मुझे लज्जित या अपमानित कर, या मुझ पर क्रोध कर, परन्तु [इन के न होते] (किम्) क्यों (जातवेदः) हे प्रज्ञाशील ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिये [हृणीषे] तू क्रोध करता या हमें लज्जित, अपमानित करता है, (द्रोघवाचः) द्रोहवादी (ते) तुझ द्वारा निर्दिष्ट (निर्ऋथम्) निर्ऋति अर्थात् कृच्छ्रापत्ति को (सचन्ताम्) प्राप्त हों।
टिप्पणी -
[ऊहे= उहिर् अर्दने (भ्वादिः)। अर्द हिंसायाम् (चुरादिः)। हृणीषे= हृणीङ् रोषणे लज्जायाञ्च (कण्ड्वादिः); तथा हृणिः क्रोधनाम (निघं० २।१३); हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा (निघं० २।१२)। देवान्= दिवु क्रीडाविजिगीषा, व्यवहार आदि (दिवादिः)। "अनृत देव" का अभिप्राय है अमृतभाषण, अनृतव्यवहार को ही निज देव मान कर तदनुकूल व्यवहार करना। समग्र चतुर्थ सूक्त में इन्द्र और सोम का वर्णन है। इन्द्र है सम्राट् तथा सोम है सेनाध्यक्ष। इन से अतिरिक्त अग्नि द्वारा अग्रणी-प्रधानमन्त्री का भी वर्णन चतुर्थ सूक्त में हुआ है। मन्त्र में सैनिकशासन का वर्णन है। इसलिये प्रधानमन्त्री के प्रति सेनाध्यक्ष कहता है कि सैनिकशासन काल में यदि मैंने कोई अनृतव्यवहार किया है, या सैनिकों तथा अन्य शासकरूपी देवों के साथ कोई अनुचित व्यवहार किया है तो तू मुझे लज्जित या अपमानित कर, और मुझ पर क्रोध प्रकट कर, परन्तु जिस किसी अधिकारी ने मुझ पर "यातुधान" होने का आरोप किया है, यदि वह आरोप न्यायालय द्वारा असत्य सिद्ध हो जाय तो उसे तू मन्त्रोक्त दण्ड प्रदान कर। यातुधान = यातना का निधान, यातना देने वाला। "न्यायालय" इसलिये कि वेदानुसार दण्डविधान न्यायालय द्वारा होता है। इसलिये कहा है कि 'धर्माय समाचरम्" [आलभते] (यजु० ३०।६); धर्माय= राजधर्म की व्यवस्था के लिये, राजा सभाचर अर्थात् (मुख्य न्यायाधीश) को प्राप्त करे। सभा= न्यायाधीशों की सभा]।