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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
    सूक्त - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त

    वि ति॑ष्ठध्वं मरुतो वि॒क्ष्वि॒च्छत॑ गृभा॒यत॑ र॒क्षसः॒ सं पि॑नष्टन्। वयो॒ ये भू॒त्वा प॒तय॑न्ति न॒क्तभि॒र्ये वा॒ रिपो॑ दधि॒रे दे॒वे अ॑ध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ति॒ष्ठ॒ध्व॒म् । म॒रु॒त॒: । वि॒क्षु । इ॒च्छत॑ । गृ॒भा॒यत॑ । र॒क्षस॑: । सम् । पि॒न॒ष्ट॒न॒ । वय॑: । ये ।भू॒त्वा । प॒तय॑न्ति । न॒क्तऽभि॑: । ये । वा॒ । रिप॑: । द॒धि॒रे ।दे॒वे । अ॒ध्व॒रे ॥४.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तिष्ठध्वं मरुतो विक्ष्विच्छत गृभायत रक्षसः सं पिनष्टन्। वयो ये भूत्वा पतयन्ति नक्तभिर्ये वा रिपो दधिरे देवे अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तिष्ठध्वम् । मरुत: । विक्षु । इच्छत । गृभायत । रक्षस: । सम् । पिनष्टन । वय: । ये ।भूत्वा । पतयन्ति । नक्तऽभि: । ये । वा । रिप: । दधिरे ।देवे । अध्वरे ॥४.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 18

    भाषार्थ -
    (मरुतः) हे सैनिको ! तुम (विक्षु) प्रजाजनों में (वि तिष्ठध्वम्) विविध स्थानों में स्थित हो जाओ, (रक्षसः) राक्षसस्वभाव वाले गुप्तचरों को (इच्छत) मार देने का संकल्प करो, (गृभायत) इन्हें पकड़ो, (सं पिष्टन) और सम्यक्तया पीस डालो। तथा (ये) जो शत्रु सैनिक (वयो भूत्वा) पक्षी होकर अर्थात् वैयक्तिक विमानों द्वारा उड़ कर (नक्तभिः) रात्रियों में (पतयन्ति) उड़ते हैं, या उड़ कर आ जाते हैं; (ये वा) अथवा जो (देवे अध्वरे) हमारे दिव्य-हिंसारहित यज्ञ के सम्बन्ध में, या राष्ट्ररूप यज्ञ के सम्बन्ध में, (रिपः) हिंसाभावनाओं को (दधिरे) चित्तों में धारण करते हैं [उन्हें पकड़ो और पीस डालो]

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