अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
ये शालाः॑ परि॒नृत्य॑न्ति सा॒यं ग॑र्दभना॒दिनः॑। कु॒सूला॒ ये च॑ कुक्षि॒लाः क॑कु॒भाः क॒रुमाः॒ स्रिमाः॑। तानो॑षधे॒ त्वं ग॒न्धेन॑ विषू॒चीना॒न्वि ना॑शय ॥
स्वर सहित पद पाठये । शाला॑: । प॒रि॒ऽनृत्य॑न्ति । सा॒यम्। ग॒र्द॒भ॒ऽना॒दिन॑: । कु॒सूला॑: । ये । च॒ । कु॒क्षि॒ला: । क॒कु॒भा: । क॒रुमा॑: । स्त्रि॒मा॑: । तान् । ओ॒ष॒धे॒ । त्वम् । ग॒न्धेन॑ । वि॒षू॒चीना॑न् । वि । ना॒श॒य॒ ॥६.१०॥ १४
स्वर रहित मन्त्र
ये शालाः परिनृत्यन्ति सायं गर्दभनादिनः। कुसूला ये च कुक्षिलाः ककुभाः करुमाः स्रिमाः। तानोषधे त्वं गन्धेन विषूचीनान्वि नाशय ॥
स्वर रहित पद पाठये । शाला: । परिऽनृत्यन्ति । सायम्। गर्दभऽनादिन: । कुसूला: । ये । च । कुक्षिला: । ककुभा: । करुमा: । स्त्रिमा: । तान् । ओषधे । त्वम् । गन्धेन । विषूचीनान् । वि । नाशय ॥६.१०॥ १४
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(ये) जो कीट (गर्दभनादिनः) गदहों की तरह नाद करते हुए (सायम्) सायंकाल (शालाः) शालाओं के (परि) सब ओर (नृत्यन्ति१) नाच करते हैं। तथा (ये च) और जो (कुसूल आदि) कुसूल, कुक्षिल, ककुभ, करूप, स्रिम नामक कीट हैं (तान्) उन (विषूचीनान्) सब ओर गति करने वालों को (ओषधे) हे ओषधि ? (त्वम्) तू (गन्धेन) निज गन्ध द्वारा (विनाशय) विनष्ट कर।
टिप्पणी -
[सायंकाल शालाओं में नाद करने वाले विशेषतया मच्छर होते हैं। इन के नाद कानों को कटु अनुभूत होते हैं, अतः घृणा की दृष्टि से इन्हें "गर्दभनादिनः" कहा है। गर्दभ का नाद कर्णकटु होता है। कुसूल आदि नाम भिन्न-भिन्न कीटों के हैं, जो कि सायंकाल प्रकट हो जाते हैं। इन कीटों या क्रिमियों के लिये देखो अथर्व० (२।३१।१-५; २।३२।१-६)। इन में से मच्छरों का विनाश ओषधि के गन्ध द्वारा दर्शाया है। औषधि को अग्नि में जला कर उस के धूम२ द्वारा इन मच्छरों के विनाश का विधान किया है। इस से प्रतीत होता है कि ये सब कीट रोगकीटाणु [germs] ही नहीं हैं। ओषधि का नाम तो मन्त्र में नहीं दिया। सम्भवतः ओषधि कृष्ण और पिङ्ग [पीत] वज ही है। वज= सरसों के दाने। अथर्व० (४।३७।२) में "अजशृङ्गी" ओषधि का नाम पठित है जिस के गन्ध द्वारा रक्षः आदि का विनाश कहा है] [१. रात में मच्छर नाद करते हुए इधर-उधर उड़ते हैं। मानो वे गाते हुए नृत्य करते हैं। २. यथा "मशकार्थो धूमः]